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3 Jul 2023 · 10 min read

60 के सोने में 200 के टलहे की मिलावट का गड़बड़झाला / MUSAFIR BAITHA

अम्बेडकर की पुस्तिका ‘Annihilation of Caste’ (जाति का विनाश) को लेकर जो विवाद साइबर स्पेस, ब्लॉग, फेसबुक सहित पत्र-पत्रिकाओं हो रहा है, उसमें अचंभित करने वाला कुछ भी नहीं है. सच्चाई तो यह है कि पुस्तक के प्रकाशक ‘नवायन’ की मुंहमांगी मुराद जैसे इस बहस-विवाद से पूरी होने वाली है. पुस्तक की भूमिका सेलिब्रेटी लेखिका अरुंधति रॉय ने लिखी है. अगर इस हाई-फाई लेखिका की पुस्तक में शाब्दिक-उपस्थिति को ‘आग’ माना जाए तो दलित बौद्धिकों द्वारा रॉय की मंशा पर सवाल खड़ा करने से उपजा विवाद ‘घी’ का काम करता दिखाई दे रहा है! इससे पुस्तक की कीर्ति फैलेगी और प्रकाशक का व्यावसायिक हित बेहतर रूप में सध सकेगा. हमने हाल के वर्षों में देखा है कि कैसे किसी हिंदी फिल्म को चलाने के लिए उसके किसी सीन, डायलॉग अथवा कथाप्लॉट का विवाद उछाला जाता है ताकि कौतुहल और विवाद-पसंद लोग दर्शक बनकर थियेटर/सिनेमा घरों की ओर रुख करे. टीवी सीरियलों में भी यह नुस्खा आजमाया जाने लगा है. बिग बॉस जैसे कथित रियलिटी शो का उपजीव्य तो यही विवाद और प्रतिभागी स्त्री-पुरुषों-किन्नरों की ऊलजुलूल दैहिक वाचिक हरकत रहा है.
60 पृष्ठों की लघु-पुस्तक की भूमिका प्रस्तुत करने में 200 पृष्ठों में भाषण झाड़ना किसी तर्क से उचित नहीं ठहराया जा सकता. यह 60 के सोने में 200 के टलहे को फेंट विशुद्ध प्रदूषण फैलाने का मामला है. क्या अरुंधति की खुद की किसी पुस्तक में ऐसी उलाड़ (extremely unbalanced) भूमिका लगाई गयी है जिसमें पुस्तक की सामग्री से तिगुनी भूमिका के शब्द हों? एक लोकल कहावत है- एक आने का मुर्गा, नौ आने का मसाला. यानी मुर्गा को स्वादिष्ट बनाने में उसकी कीमत से नौगुना खर्च मसाला आदि में खर्च करना. व्यंजना यहाँ यह भी है कि इतनी तामझाम वाली भूमिका के बिना बाबा साहेब जैसे एक विराट आयाम व आभा वाले दलित व्यक्तित्व की कृति को भी भाव नहीं मिलने वाला! अतः उस दलित कृति में बिक्री का ‘भवसागर’ पार कराकर ‘स्वर्गिक’ अर्थ लाभ पहुंचाने के लिए किसी दैवी छवि की ब्राह्मणी लेखिका के पवित्र वचनों की छौंक लगाना जरूरी था! उद्देश्य साफ़ है, अम्बेडकर एवं उनकी इस लघु पर ‘घाव करे गंभीर’ प्रभाव की पुस्तक के महत्त्व को बौना बनाने की कोशिश की गयी है. जिस समाज में आम आदमी की बनियागिरी को कैश करके केजरीवाल जैसा खुदगर्ज़, आत्मप्रशंसा-आकुल, अहंकारी, अवसरवादी एवं उद्दाम महत्वकांक्षा का व्यक्ति एक राजनीतिक दल खड़ा करके चला लेता है, मुख्यमंत्री का खास आसन पा जाता है वहाँ किसी खास इलीट लेखक के बड़बोलेपन को यदि कैश करने का मंसूबा बाँध कोई प्रकाशक सफल हो रहा है तो इसमें कोई चौंकाने वाली बात कहीं से नहीं है!
बाबा रामदेव जैसा गोयबल्सी विचार का कद्रदान मामूली पर बड़बोला-बकबकबोला चालाक आदमी कसरत, कद्दू और करेला बेच कर एक आर्थिक साम्राज्य खड़ा कर ले रहा है, और, ब्याज में बाबा/साधु की पदवी भी पा ले रहा है तो हमारे समाज के बुलंद सोच की ही बलिहारी गई! निर्मल बाबा जैसा आदमी महज थूथन और हथेली से आशीर्वाद बरसाकर ईश्वर बना बैठा है तो हमारी भेड़चाल बुद्धि का क्या बयान करना?
अरुंधति रॉय एवं उनके अंधसमर्थक वही पिटा-पिटाया राग अलाप रहे हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ऐसे विरोध हमले हैं. भई, आप आलोचना के जनतांत्रिक अधिकार को विरोध मात्र का जामा पहना रहे हैं. क्या कोई बौद्धिक-सामाजिक संगठन अपनी बैठक बुलाकर किसी विषय पर संयत-संगत तरीके से अपनी मतविभिन्नता दर्ज कर रहा है तो वह आपत्तिजनक है? आदिवासियों एवं बाँध विस्थापितों के अधिकारों के लिए तो अरुंधति खुद विरोध आंदोलनों का हिस्सा रही हैं, अगुआ रही हैं, क्या अपने ऐसे लापरवाह वक्तव्यों के प्रति उनका कोई नैतिक दायित्व नहीं बनता? अम्बेडकर ने मनुस्मृति दहन किया था. क्या वह किताब विशेष को जलाना था कि किसी समाज में पल रहे किसी अमानवीय विचारधारा का प्रतीकात्मक विरोध था? हम देखते हैं कि बहुत से राजनीतिक निर्णयों एवं कार्रवाइयों के विरोध में लोग सरकार अथवा सरकारी-प्रशासनिक निर्णय से जुड़े व्यक्ति विशेष के पुतले का दहन करते हैं. तो इसके उद्देश्य एवं औचित्य पर बिना विचारे क्या इसे आप गैर मुनासिब कृत्य ठहरा देंगे?
अरुंधति रॉय अपनी उक्त भारी भरकम भूमिका में लिखती हैं कि संयोग से (incidently) रिचर्ड एटनबरो निर्देशित ‘गाँधी’ फिल्म में अम्बेडकर का walk-on part यानी एक संवादहीन छोटा रौल भी नहीं फिल्माया गया है। पर इसे वे मात्र एक तथ्य के रूप में रखती हैं, इस बात की आलोचना नहीं करतीं। वे incidently शब्द का प्रयोग करती हैं। हालांकि ऐसा कह वे आलोचना का सूत्र हमें थमा जाती हैं क्योंकि वे यह भी तथ्य जोड़ती हैं कि फिल्म को भारत सरकार का आर्थिक सहयोग भी मिला था।
बताइए, यह कैसी फिल्म है कि गाँधी-अम्बेडकर की कुछ मिनटों की भी आमने –सामने की (face to face) मुलाकात नहीं करवाई जाती? और, इस प्रकरण पर आप हैं कि अपनी 200 पृष्ठों की बात में से कुछ शब्द भी आलोचना में खर्च करना नहीं चाहतीं?
अपनी इस भूमिका में गाँधी के बारे में टोकरी भर बातें लिखकर उनको बाबा साहेब पर भारी बना कर परोसने में यह बात तो जरूर है कि अरुंधति रॉय का मूल ध्येय गांधी के वैश्विक कद को पुस्तक के विज्ञापन के निवेश करने का ही है, और यह षड्यंत्र कारक सौदा प्रकाशक के इशारे पर हुआ है! संघी पत्रकार अरुण शौरी द्वारा Worshipping False Gods लिखकर अम्बेडकर को जानबूझ कर नीचा दिखाने का प्रयास किया गया, कम कर के आंकने का प्रयत्न किया गया, यहाँ अरुंधति भी सायास यह सब कर रही लगती हैं. कारण कि विवाद के परिप्रेक्ष्य में जो भी उनका लिखित स्पष्टीकरण आया है उसमें वे अनेक बार बचाव की मुद्रा में आती दिखती हैं. टिपिकल सवर्ण एवं वामपंथी मान्य बुद्धिजीवियों की तरह आलोचना में मुखर हुए बहुजन बुद्धिजीवियों को वे सांस्कारिक पिटे-पिटाए ढर्रे पर अक्षम, अयोग्य, आक्रामक और आतंकी तक बताने का संकेत छोड़ रही हैं. ध्यान रहे, इस पुस्तक का कॉन्टेंट अम्बेडकर का वह भाषण है जो उन्हें आर्य समाज प्रभावित ‘जात-पांत तोडक मंडल’ के मंच से सन 1936 में देना था, पर इस पर्चे को जब आयोजन के अधिकारियों ने भाषण पूर्व पढ़ा तो जात-पांत तोड़ने की उनकी ‘सहानुभूति’ को लकवा मार गया और जात-पांत पर अम्बेडकर की तीखी मार को वे सह नहीं पाए. मंडल ने बीच का रास्ता सुझाया था कि भाषण को अम्बेडकर कुछ कांट-छाँट कर नरम बनाए जबकि बाबा साहेब को अपने भाषण से एक शब्द भी जाति कायम रखने की तरफदारी में त्यागना मंजूर न था!
यहाँ एक असंबद्ध सा प्रश्न मन में कौंधता है कि जिस गांधी की संत-वंदना में अरुंधति उतरी हैं, उनके उस अतिशय वर्ण-प्रेम में वे कैसा संतत्व देखती हैं जिसको भजते हुए उन्होंने जातिगंध को समाप्त होने का स्वप्न देखा? गांधी ने ओस चाटकर प्यास बुझाने के कई ठकुरसुहाती या कि अव्यवहारिक एवं हास्यास्पद सिद्धांत पेश किये। समाज से भेदभाव को मिटाने का बच्चों सा खेल खेला। दूध की रखवाली बिल्ली के भरोसे छोड़ा जा सकता है – इस सिद्धांत के भरोसे ट्रस्टीशिप का लोकलुभावन-सह-सेठ सुहावन स्वांग रचा।
वैसे, मैं भी वर्तमान कांग्रेसी नेता एवं राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी एल पुनिया द्वारा Worshipping False Gods के सन्दर्भ में दिए गए बयान की तर्ज़ पर कहूँगा कि चाहे अरुंधति ने बाबा साहेब का कंधा लेकर खुद के एवं अपने प्रकाशक के किन्हीं मनसूबे को पूरने के लक्ष्य से यह लेखन कार्य किया हो पर अंततः वे इस पुस्तक को पुनः चर्चा में लाकर हमें लाभ तो पहुंचा ही गयी हैं. पुनिया ने Worshipping False Gods पढ़ते हुए यह निचोड़ रखा था – “…But of the hundreds of books that I have read, I would like to single out one, Worshipping False Gods by Arun Shourie. Although the book denigrates BR Ambedkar, it does contain a lot of material and interesting references. “(Tehelka.com)
हम याद रखें, जब गैर-बहुजनों ने दलित साहित्य को अछूत मानना बंद किया, अन्यमनस्क-अनमने-सहानुभूति में ही सही उसपर लिखना पढ़ना शुरू किया तभी उसके अच्छे दिन आये. बात बढ़ी, धार बढ़ी, संवाद बढ़ा. और, यह तय है कि सेंत में उनने इस स्व-अहितकारी एवं ‘परकल्याणकारी’ कार्य में हाथ नहीं लगाया! सरकारी संस्थानों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों में दलित शोध, अध्ययन, विमर्श आदि के नाम पर देखिये द्विजों की कितनी चांदी है? अधिकाँश माल वे ही चट कर जा रहे हैं. इस फील्ड में भी दलित-पिछड़े हाशिए पर ही हैं. अनुयायी की भूमिका में ही हैं, अगुआई पर द्विजों ने ही कब्ज़ा कर रखा है. और, द्विजों की नेतृत्वकारी भूमिका के अपने खतरे भी हैं. वे चाहेंगे कि दलित लेखन की त्वरा, तेज, धार, एक्सक्ल्युसिवनेस को खत्म कर नखदंत विहीन कर दे. इतिहास गवाह है, कबीरपंथ, बौद्ध धर्म, जैनधर्म आदि के प्रगतिशील, मानवतावादी, बुद्धिवादी तत्वों को द्विजों ने घुसकर मटियामेट किया भी है.
अम्बेडकर जयंती मनाये जाने के समाचार जानने के लिए इन पंक्तियों ने दिनांक 15 अप्रैल 2014 के पटना संस्करण के कुछ अखबारों के पन्नों की छानबीन की. पाया कि लगभग हर प्रमुख राजनीतिक पार्टी से जुड़े समाचार हैं. संघी, बजरंगी,धुरफंदी सबके! जाति और जमात आधारित संगठनों की सहभागिता का मुआयना किया तो रोचक तथ्य हाथ लगे. केवल बहुजन समुदाय से जुड़े राजनैतिक सामाजिक संगठनों द्वारा ही अम्बेडकर जयंती मनाए जाने की खबरें पढ़ने को मिलीं. मसलन, द्विज जातियों, द्विज जमातों, द्विज संगठनों द्वारा अम्बेडकर जयंती मनाए जाने की खबर नदारद मिली. जबकि द्विज गाँधी ही नहीं बल्कि गैर-द्विज सरदार पटेल से जुड़े समारोहों का आयोजन द्विज संगठनों द्वारा बड़े पैमाने पर तामझाम के साथ किया जाता रहा है.
लख रहा हूँ कि जैसे हिंदी अखबार वाले हिंदू होकर अथवा बहुसंख्यक प्रतिनिधि बनकर अल्पसंख्यकों के पर्व-त्योहारों पर बधाई और शुभकामना व्यक्त करते हैं, उसी तरह से अखबारों के रिपोर्टर अम्बेडकर की पुस्तक ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ की भूमिका लिखने वालीं अरुन्धति रॉय की तरफ से समाचार बनाते देखे गए हैं. जब वे अरुंधति की बात करते हैं तो अपना बनाकर कहते हैं, और जब अरुंधति के मत से अलग के विचारों को वे रखते हैं तो दलितों के विचार, उनके विचार जैसे परायेपन का बोध कराने वाले जुमलों का इस्तेमाल करते हैं. दूसरे शब्दों में, अरुंधति के लिए अपनापा का भाव एवं विरोधी मत अथवा स्वर के लिए दुराव वाले संबोधन.
अरुंधति को ‘god of small things’ तथा बिक्रम सेठ को the suitable boy उपन्यास के लिए जब करोड़ों रुपये का पारिश्रमिक प्रकाशक द्वारा अग्रिम ही धमा दिया जाता है तो उसमें भी लोगों को बुरा और आपत्तिजनक नहीं लगा कि आखिर यह कैसा श्रम है जिसके लिए इतनी बड़ी राशि दी जा सकती है? क्या यह श्रम का बेहूदा ऊंचा मूल्यांकन नहीं है? क्या यह अधिमूल्यांकन (overrating) श्रमणशीलों के श्रम को मिले तुच्छ कीमत और मूल्यांकन के विरोध में जाते हुए सामान्यतः श्रम करने वालों का अपमान नहीं करता? क्या अरुंधति बताएंगी कि आम दलितों वंचितों, मेहनतकशों की जो दुर्दशा है वह उनके जैसे देव-श्रम मूल्य हडपने वालों के चलते ही बहुत कुछ नहीं है? फिल्म, खेल, पेंटिंग, व्यवसाय, शेयर मार्केट आदि के लिए कुछ लोगों के श्रम का मूल्य जो लाखों-करोड़ों की राशि में आँका जाता है वह क्या एक तरह की बर्बरता और क्रूर बेईमानी बेहयाई नहीं है? क्या इस विषय पर रॉय जैसी प्रबुद्ध लेखिका अपने पवित्र विचार रखेंगी? किसी धन-मतांध व्यापारी ने आपकी किताब पर बेशुमार पैसे क्या लुटा दिए आप सेलेब्रेटी के अभिमान में पैदल ही धरती से देवलोक तक विचरण करने लगीं?
अरुंधति के विवादित लिखे को जब तर्कों के साथ घेरे में लिया गया है तो वे और उनके अंधसमर्थक तिलमिला गए हैं. इसी आसंग में प्रश्न फेंटा जा सकता है कि आखिर साहित्य में बहुजनों के लिए बोलने, लिखने का अधिकार किसको है? यानी क्या स्वानुभूति एवं सहानुभूति के खांचे में बद्ध करके इस सवाल को देखा जा सकता है? उत्तर है, हाँ में भी है और नहीं में भी. स्पष्ट है कि अनुभव सच की बुनियाद का कोई मुकाबला नहीं हो सकता. दूसरी ओर सहानुभूति की अभिव्यक्ति का भी अपना महत्त्व है. साहित्य में ‘परकाया-प्रवेश’ की धारणा का आत्यंतिक महत्त्व है. किसी भी दूसरे व्यक्ति अथवा दूसरे स्रोतों से पाए ज्ञान अथवा पर-अनुभव को अपने कला कौशल के सहारे ही अधिकाँश साहित्य लिखा गया है. यह भी अनुभव को बरतने का उदहारण है. डायरी, यात्रा-वृत्तान्त, आत्मकथा, रिपोर्ताज जैसी प्रायः स्व-अनुभव एवं यथार्थ पर आधारित विधाओं से अलग कविता, कहानी, उपन्यास जैसी वृहतर विधाओं में जो लेखन उपलब्ध हैं, वे अपने-पराये के अनुभवों, लिखित मौखिक विविध जानकारियों में कल्पना का पुट मिलाकार ही रचे जाते हैं. बावजूद, साहित्य में यथार्थ आधारित विधाओं में लेखन तो जरूर हो रहा है पर उसकी विश्वसनीयता बहुत नहीं होती. हम अपने अनुभवों का अपनी सुविधा एवं राजनीति अनुसार छोड़-पकड़ भी करते हैं, और तोड़-मरोड़ भी. अतः साहित्य मूलतः कल्पनाजीवी ही होता है. कल्पना के नाम पर लिखने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि उसमें आनय तथ्यों, वाद-विवादों के लिए कोई प्रमाण नहीं माँगा जा सकता. जबकि अनुभव अथवा तथ्य आधारित लेखन को कोई भी जांच-परख पर आरोपित कर सकता है. अप्रिय, प्रतिकूल, अवमानना जन्य तथ्यों के अंकन पर घमासान मच सकता है, प्रमाण मांगे जा सकते हैं, कोर्ट-कचहरी का चक्कर लग सकता है. रिश्तों-नातों में दरार आ सकती है.
प्रसंगवश, अरुंधति रॉय ने आम द्विज अथवा वाम संस्कार के दलित विरोधियों की तरह अपनी आलोचना में एक छिद्रान्वेषण यह रखा है कि जब कोई गैरदलित किसी दलित के बारे में नहीं लिख सकता तो अम्बेडकर तो महार थे, उनके बारे में महारों के अलावा अन्य कोई दलित लिखने का कैसे अधिकारी हो सकता है? साफ़ है, आम द्विज लेखकों के जो पूर्वग्रह दलित लेखन के प्रति है, वही इस ख्यातनाम लेखिका के अंतस में भी पल रहे हैं. ये और इनके धुर समर्थक यह कतई नहीं मान सकते कि जो दलितों के बारे में हमारी द्विज प्रतिभा जो कलमबद्ध कर रही है उसमें कोई खोट हो सकती है, वह वेद-वाणी से कम हो सकता है! और, सबसे बढ़कर तो यह ‘पारंपरिक अस्वीकार’ कि यह खोट एक दलित कुलजनमा कैसे निकाल सकता है? गांधी और अम्बेडकर के विचार-द्वंद्व में भी यह एक मूल बात रही.
दलित लेखन में गैर दलित आमद के स्वीकार- अस्वीकार पर तनिक बात करें तो तथ्य यह है कि दलित लेखन का बहुत सारा हिस्सा गैर दलितों का है. इस गैर दलित में ओबीसी भी हैं, द्विज भी. दलित लेखन जिस अम्बेडकरवाद को मूल मानकर चलता है उसमें सारे मानववादी विचार एवं विचारधाराएँ एवं उनके पोषक आ जाते हैं. दलित लेखन में क्या द्विज कुलजनमा महामानव बुद्ध का स्वीकार नहीं है, क्या इसमें मार्क्स नहीं अटते, राहुल सांकृत्यायन नहीं समाते? हिंदी के प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन सहित अनेक द्विज लेखकों की कतिपय रचनाएं दलित साहित्य का हिस्सा हैं. कबीर, रैदास, फूले, पेरियार और हाल में आयें तो राजेंद्र यादव, प्रेम कुमार मणि, रमणिका गुप्ता, राजेंद्र प्रसाद सिंह, चौथीराम यादव जैसे बहुजन ब्रेन के बिना तो दलित साहित्य व चेतना की कल्पना भी नहीं की जा सकती. कोई भी प्रमुख दलित साहित्यिक पत्रिका उल्टा कर देख लीजिए, उसमें आपको दलित (st समाहित), ओबीसी एवं द्विज लेखकों की रचनाएँ साथ-साथ मिलेंगी. दलित साहित्य में यदि जोर देकर यह कहा जाता है कि सहानुभूति की अपेक्षा सहानुभूति का अधिक महत्त्व है, और यही इस साहित्य का मूल स्वर है, धुरी है और सहानुभूति उसकी आवश्यक परिधि, उसका जरूरी हाशिया-हिस्सा तो इस तथ्य को पचने में किसी को क्यों परेशानी होनी चाहिए?

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