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ज़िंदगी की जद्दोजहद से यूँ न हारिए,
उदास होकर निष्क्रिय कदापि न बैठिए।
हार कर भी बाज़ियाँ पलट दी जाती हैं,
मन को संकल्पित कर हर जंग जीतिए।
अकर्मण्यता से महल भी हो जाते हैं खण्डहर,
अवसाद से निराश हो कर मन को न उलझाइए।
जिसने स्वाद ही नहीं चखा हार का वो कैसे जीतेगा,
आशाओं के पंख बना नभ को छू लीजिए।
हो प्रतिकूल परिस्थितियां सामने खड़ी चट्टान बनकर,
हर हालात का सामना मुस्कुरा कर स्वीकार कीजिए।
यादों के असीमित समंदर में डूबकर गहरे,
केवल धवल माणिक ही ढूंढ़कर निकालिए।
थाम लीजिए हाथ एक दूसरे का ज़रूरत में,
मन में वहम, भ्रम और अहंकार न पालिए ।
अकेले आए थे, अकेले ही जाना हम सबको,
पीछे कुछ अनुकरणीय निशाँ छोड़ते जाइए।
डॉ दवीना अमर ठकराल‘देविका’