*सांच को आंच नहीं*
सांच को आंच नहीं
क्या ऐसा लगता है तुमको
सच तो झुलसता है
क्या मालूम नहीं है तुमको
मरता नहीं है कभी वो लेकिन
तुम जितना भी कुचल दो
कभी तो सामने आ ही जाता है सच
चाहे तुम कितना ही मसल दो
अपहरण हो जाता है कभी सच का
बलात्कार भी हो जाता है सच का
लेकिन कोई हुआ नहीं आजतक
जो क्रिया कर्म कर पाया हो सच का
है गलत ये कहना कि
सांच को आंच नहीं
आंच भी आती है
जला भी जाती है
दर्द भी दे जाती है उसको
जो सच के साथ खड़ा रहा
विपरीत परिस्थितियों में भी
लेकिन ये बता सकता है वही
जिसने दिया है सच का साथ
क़ुर्बान कर दिया अपना जीवन
इसी संघर्ष और क़ुर्बानी से
सारी आंच ख़ुद पर ली है किसी ने
तभी साँच को आँच आ नहीं पाती है