“क्या खोया-पाया”
“क्या खोया-पाया”
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कई बार सोचा, बैठकर अकेले में,
क्या खोया-पाया, अब तक जीवन में?
हमने अपना बचपन खोया,
खोया बचपन के खेल-खिलौने,
प्यार-दुलार औ सपने खोए,
सर से मां का आंचल खोया,
दुर्दिन की विवशता में,
नयनों से मोती खोया,
झूम रही दुनिया बीच,
हमने अपनी हंसी खोया।
सब खोता ही गया जीवन में,
बस असफलताओं का संगम पाया,
छुट गया था जो हमसे,
काव्य प्रतिभा की ललक पाया,
अपने मूक मस्तिष्क में,
चंचल एक भवर पाया,
डंस रही सीने में अनवरत,
हमने अमिट पीड़ा पाया,
घुट-घुट जीने को प्रेरित करती,
अंतरात्मा से एक साहस पाया,
सासें रूकने के कगार पर ,
हमने अपनी मंजिल पाया।।
वर्षा (एक काव्य संग्रह)से/ राकेश चौरसिया