24) पनाह
चल रहे थे अनजानी राह पर कदम,
बढ़ते जा रहे थे अँधेरे में जाने कहाँ
कि आ गए तुम अचानक
मसर्रतों का चिराग ले कर,
मेरी बेमायने ज़िंदगी में बहार बन कर।
थाम कर मेरा हाथ
चल दिए दूर बहुत दूर,
गम न तन्हाई न अश्क़ थे जहाँ,
थी बहार ही बहार, तबस्सुम ही जहाँ।
ख़ुशी में मगर देखा जो मुड़ के तुम्हारी जानिब,
पाया उदासी में डूबा अपने रहनुमा को मैंने।
काफूर हो गयी ख़ुशी देख कर तुम्हारी उदासी को,
सोच में खो गया दिल देख कर तुम्हारी उदासी को।
लब तो खामोश रहे, ऑंखें बोल उठीं मगर,
ऐ मेरे रहनुमा, मुहब्बत है मुझसे अगर,
दे दे अपने तमाम गम, तमाम फिक्र मुझे,
भरने दे अपना दामन मसर्रतों से,
फ़क़त तबस्सुम से मुझे।
उसी ख़ुशी की कसम तुम्हें दी जो तुमने मुझे,
बस इतनी मोहलत दे
मिलेगी इसी में ख़ुशी मुझे।
पनाह दूँगी तुम्हारी हर चिंता, हर गम को मैं,
ज़ाया समझूंगी वरना इस जन्म को मैं।
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नेहा शर्मा ‘नेह’