24. इल्जाम
गुज़री यादों का आगाज़ नहीं करते हैं,
चलो छोड़ो इसपे बात नहीं करते हैं;
वैसे भी कुछ हासिल नहीं होता,
बादल नहीं बरसात बयां करते हैं।
इबादत सी उकेरी गई थी,
इश्क की जुबां उनके होंठों पर;
वो इंसान अब जिंदा नहीं है,
उनके अल्फ़ाज़ बयां करते हैं।
कालकोठरी की चौखट पर,
अपने हाथ बांधे जो खड़े हैं;
दशकों की दस्तक लातें हैं,
जो सन्नाटे बयां करते हैं।
दरबार की दरकार को ‘घुमंतू’
एकतरफा ना समझें हुज़ूर;
कैसे सिर उठाए बैठे हैं वो,
ये उनके इल्जाम बयां करते हैं।।
~राजीव दत्ता ‘घुमंतू’