(23) कुछ नीति वचन
(1)
घाव हो जहाँ वहीँ चोटें बार-बार पड़े
भोजन अभाव में ही भूख़ भीषण जगती है |
विपत्ति जब पड़े ,दिखें तब ही असंख्य शत्रु
कमियां जहाँ होतीं ,अनर्थ बहुत होते हैं ||
(2)
अधिक घनिष्ठता ढिठाई को जन्म देती
नित्य का मिलन अपमान ही देता है |
चन्दन के जंगल में भीलों का समुदाय
चन्दन के पेड़ों को ईधन बना लेता है ||
ज्यादा गर बोलोगे , मूरख कहेंगे लोग
ज्यादा मौन अपराध स्वीकृति बन जाता है |
ज्यादा बरसात सदा लाती है बाढ़ तो
दीर्घ ग्रीष्म धरती को क्षार कर देता है ||
हर व्यवहार की सीमा जरूरी है
अति हर बात की हमेशा ही वर्जित है |
सीमा और संतुलन जीवन के नियामक तत्व
असंतुलन ही मानव को पतित कर देता है ||
(3)
हे चातक , हो सावधान ,सुन क्षण भर मेरी बात ,
याचक बन घन से जल मांगो, पर सोचो यह बात |
तेरी तृष्णा तुझे बनाती हर जलधर का भिक्षु
किन्तु भूलता तू, स्वाति-घन ही है तेरा इच्छु ||
तेरी प्यास बुझा पाए —,क्या हर बादल सक्षम ?
कुछ घन तो रीते रीते हैं, व्यथा करें धम- धम |
कुछ अधभरे , उड़े जाते हैं , भरने अपना पेट ,
कुछ को वन उपवन की चाहत ,सुने न तेरी टेक ||
बना भिखारी दीन वचन , तू सबसे मांगे नीर
ये अयोग्य ये स्वार्थलिप्त क्या जाने तेरी पीर ?
उससे मांग, जो दे पाए निःस्वार्थ, समझ कर्तव्य,
एक स्वाति- नक्षत्र नीर केवल तेरा मंतव्य ||
(4)
विघ्नों से डरकर संशय में, कर्तव्यों से विमुख रहे जो
श्रेणी उनकी निम्न बताते विद्वज्जन टेढ़ा मुख करके ,
कर प्रारम्भ कार्य को, पीछे हट जाते विघ्नों के डर से ,
“मध्यम” उनको बतलाते, सब कुटिल हँसी हँस हँस के
चाहे पग पग पर विघ्नों का एक बवंडर आता जाए ,
नद, पर्वत या व्याघ्र सामने , आंधी तूफां या आ जाए |
किन्तु किया प्रारम्भ अगर तो पहुँच लक्ष्य पर ही जो रुकते
तिलक उन्ही के माथे सजता , उनको ही उत्तम जन कहते ||
(5)
राजा देखे, दण्डपति, देखे न्यायाधीश
भगिनी, भ्रातृ, पिता, माता, सुत, मित्र, ज्ञान के ईश |
बने सत्यवादी सब धर्म पुरोधा, न्याय की मूरत
उनके तर्कों के आगे बन जाओगे तुम मूरत |
सब कुछ तेरा हर लेंगे , सब सोखेंगे जीवन-रस
यदि चाहो बचना इनसे, भर दो इनके मुँह मधुरस |
बिन मुख लेपे ढोलक के चमड़े का स्वर बस “फख फख ”
लगे मसाला मुँह पे, “धिम धिम” बजती , बरसें नवरस ||
स्वरचित एवं मौलिक
रचयिता : (सत्य ) किशोर निगम
प्रेरणा /भावानुवाद : संस्कृत सूक्तियाँ