22. खत
कभी लिफ़ाफ़ों में छुपाकर रख देते थे,
कभी कोरा ही सजाकर रख देते थे;
खतों का दौर वो कुछ और हुआ करता था,
दलीलों दुआओं को भी बयां कर रख देते थे।
नये फ़सानों का पुलिया बनता था वो,
कई पुराने किस्से भी बताकर रख देते थे;
हजारों बातें कई रातों तक लिखते थे वो भी,
फिर आँसू बहाकर दिल से लगाकर रख देते थे।
सच को देखने से भी डर जाती थी जिनकी नजरें,
वो ही सारे झूठे पयाम जलाकर रख देते थे;
बरामदे थे बनते बसेरा उलझन में पड़े बेचारों के,
जहां खत के कोने में दसियों ख्वाब बुझाकर रख देते थे।।
~राजीव दत्ता ‘घुमंतू’