(21) “ऐ सहरा के कैक्टस ! *
ऐ सहरा के कैक्टस !
कैसे हो सकते हो तुम “अमीत” ?
मैं भी तो हूँ इस सहरा में तुम्हारे साथ |
न तुम तनहा हो , न मैं अमित्र |
जो काँटा चुभाया है ,तुमने
क्या नहीं था वह
मित्रता के बढे हाथ का प्रतीक ?
तुम्हारी प्यास अधूरी है !
किन्तु इस अपार रेत-राशि के नीचे दबे जल- बिंदु
तुम्हारे जीवन को बनाए रखने के लिए ,
धरती के सबसे सुन्दर पुष्प तुममे खिलाने के लिए
दे रहे हैं तुम्हें सतत अपना जीवन-दान
क्या इस स्नेह से अधिक भी है कुछ वांछनीय ?
देखो तो मेरी ओर
जिसके प्यासे तड़पते होठों को
नहीं मिल सका जल का एक बिंदु
हर क्षण बढती यह प्यास
ले जायेगी जीवन के उस पार
नहीं जानता- क्या वहां भी होगी बस
प्यास ही प्यास
किन्तु बुझती आँखों में उस क्षण
रहेगा कृतज्ञता-भाव का एक जल बिंदु !
कृतज्ञता इस कांटे के रूप में
बढे हुए तुम्हारे
मैत्री के हाथ के प्रति ।
खारा ही सही , वह जल बिंदु ,
किन्तु आशा है बढ़ा देगा
तुम्हारे जीवन की डोर को
कम से कम एक क्षण और |
ऐ इस सहरा के मेरे मीत
सार्थक हो जायेगी हमारी प्रीत ।”
स्वरचित एवं मौलिक
रचयिता : (सत्य ) किशोर निगम
* कैक्टस =नागफनी