Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
28 Jun 2023 · 8 min read

21वीं सदी के सपने (पुरस्कृत निबंध) / मुसाफिर बैठा

सपने प्रगति की प्रेरणा प्रदान करते हैं साथ ही वे विकास का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं जो स्वप्न नहीं देखता है वह कैसे कह सकता है कि वह निर्माण की दिशा में कुछ करना चाहता है सपने हकीकत से अलग नहीं होते हमारी आकांक्षाएं इच्छाएं एवं हमारे भग विभ्रम भी अक्सर हमारे सपनों में तब्दील हो जाया करते है, सपने हमारे गतिशील होने, अभीष्ट की चाह की ओर अग्रसर होने का आईना भी है पर हमें पता है कि 21वीं सदी के हमारे सपने अनायास ही साकार नहीं हो जाएंगे, क्योंकि महज तिथियों के बदल जाने से स्थितियों नहीं बदल जाती।

चूंकि 20वीं सदी हमारे लिए काफी गम लेकिन केवल थोड़ी खुशी की सदी रही है, अत: 21वीं सदी की अगवानी हम कई सम्भावनाओं, आशकाओं और प्रश्नों से कर रहे हैं, ये प्रश्न हमारे जीवन के विविध पहलुओं-विचार, राजनीति, अर्थशास्त्र पर्या वरण सूचना-प्रौद्योगिकी, ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता संस्कृति, हमारी मिट्टी आदि से जुड़े है. इन बिन्दुओं से लगकर ही हमारा स्वप्न आता है।

राष्ट्रपिता कहे जाने वाले गांधी ने भारत में कथित राम-राज्य की परिकल्पना की थी, अपने इस सपनों के राज में वे चाहते थे कि एक ऐसी प्रजातांत्रिक शासन पद्धति हो जिसमें लोक कल्याण की भावना प्रबल हो। उन्होंने इसमें सामाजिक विषमता, अस्पृश्यता रहित आपसी सौहार्द वाले समाज का सपना देखा था। यों कहें कि उनकी परिकल्पनाओं का भारत एक आदर्श भारत हैं. पर यह हमारे लिए काफी शर्म और दुःख का विषय है कि आजादी की अर्द्धशती बीत जाने के बाद भी इस तथाकथित वैज्ञानिक युग में, हम गांधी के सपनों को पूरा नहीं कर पाए हैं अब भी गांधी, कबीर और बुद्ध, महावीर, फुले, आंबेडकर की ’आत्मा’ कराह रही है।

आज हमारे देश में चहुँदिश आतंक, अवसाद और निराशा का आलम है। भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के चलते आम लोगों के लिए नौकरी व रोजगार की भयानक कमी हो रही, फलत: जनस्फोट के शिकार इस देश में बेकाम बेरोजगार लोगों की फौज बेतहाशा बढ़ रही है। आतंकवाद और उग्रवाद का खूनी पंजा दिनों दिन पसरता जा रहा है और अपनी गिरफ्त में समूचे समाज को ले रहा है भूखी-नगी पढ़ जनता की अनवरत बढ़ती भीड़ सभ्यता और मानवता के मुँह पर तमाचा है दलितों चितों स्त्रियों को अभी भी उनके प्राय: मानवोचित अधिकार नहीं मिल पाए हैं। एड्स, कैंसर, हेपेटाइटिस बी जैसी जान लेवा व्याधियों पर विजय का प्रश्न अब भी बरकरार है जाति, वर्ण और मजहब की संकीर्ण दीवारों को भी अभी हम नहीं पाट पाए हैं तथा सीमित संसाधनों वाली पृथ्वी के दोहन में हम सर्वाधिक विवेकशील कहलाने वाले प्राणी होकर भी नादानी दिखलाने से बाज नहीं आ रहे हैं ऐसे विपरीत समय में सपनों का महत्व काफी बढ़ जाता है।

हम आतंक संकट और तनाव के असाधरण समय में जी रहे हैं। साम्प्रतिक समय के आत्मघाती सम्मोहन और संकीर्ण दायरे से निकलकर हमें 21वीं सदी के अपने सपनों पर खरा उतारना होगा, ऐसा इसलिए कि पिछली सदी के अन्तिम दशक में बहुत कुछ इतना तेज बदला है और इस नई सदी में भी वह इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि उस गति को दिशा देने की त्वरित जरूरत आ पड़ी है।बाहर करना ही होगा, है कि ऐसा नहीं हो पाया तो यह हमें अवांछित दिशाओं में ले जाएगा। वर्तमान स्थितियाँ बराबर ऐसे ही संकेन्द्रण की और बढ़ रही हैं और यह खतरा निरंतर गहरा रहा है कि कहीं दुनिया की अधिकाश आम आबादी लगातार उत्पीडन और उत्पीड़ित मृत्यु का शिकार न हो जाए, अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य न हो जाए और सिर्फ कुछ ‘धवल’ भद्रजन अपने सफेद बालों को कृत्रिम कालापन दिए, नकली दिल और नकली दिमाग लिए इस धरती पर चहल कदमी न करने लगे राम-राज्य में ये अभिशाप स्वयंमेव समाप्त हो जाएंगे।

तो आइए देखें कि नई सदी के हमारे सपने क्या हो? प्रथमतः तो हमें इस 21वीं सदी में उस जमीनी लोकतंत्र (Earth Democracy) की राह बढ़ना है जहाँ वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भारतीय तहजीब अटेगी। सच्चे अर्थों में दुनिया भर को अपने आगोश में ले सके जहाँ यह सारा संसार ही भारत सदृश विविधता में एकता का आह्लादकारी समाहार बन जाए जहाँ संसार की सारी जाति प्रजाति, वर्ण-नस्ल, धर्म-मजहब एक-दूसरे से जुड़कर एक सूत्र में बँधकर किसी समांग सार्वभौमिक जीवन धारा में समा जाए, अट जाएं, जिसकी अंतिम मंजिल रैदास का ’बेगमपुरा’ हो, समानाधिकार वाला वैज्ञानिक–तार्किक और मानवाधिकार पूर्ण समाज हो।

हम चाहेंगे इस सदी में कि, जो जीवन हम जी चुके हैं, उससे कहीं बेहतर जीवन के अवसर अपनी आने वाली पीढ़ियों को दे सकें, जबकि साम्प्रतिक दुनिया का जो बुरा हाल है, उसे देखते हुए अपने दिल-दिमाग मे स्वप्नों को संजोए रखना भी कठिन प्रतीत होता है, फिर भी यदि हम चाहते हैं कि मानव जाति परमाणविक संहार से विनिष्ट न हो, या अभी के प्रगतिरोधी वातावरण में मानवता पीछे न धकेल दी जाए, जिसका मुकाबला कभी हम्मूराबी, कन्फ्यूशियस कोपरनिकस बुद्ध, होमर, जरथुष्ट, ईसा जैसे स्वप्नजीवी मानवता सेवक मसीही इंसानों को करना पड़ा था। तो हमें इन सपनों को बरकरार रखना ही पड़ेगा।

आज इस नई सहस्राब्दी के आरम्भ पर भी दुनिया की अधिसंख्य जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने को विवश हो रही है आज भी विश्व की कुल 600 करोड़ आबादी में से 20 करोड़ लोग शरणार्थी जीवन जीने को अभिशप्त है। अपराध खासकर हिंसक व अमानवीय अपराधों की संख्या चिन्त्य और भयावह गति से बढती जा रही है। युगांडा, जाम्बिया जिम्बाब्वे सहित अनेक अफ्रीकी एशियाई, सादिनी अमरीकी देशों में पूर्व की तुलना में मानव जीवनावधि प्रत्याशा के विपरीत कम हो गई है। इस स्थिति को सपनों में दखल देने से धनी देशों में आय का संकेन्द्रण है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट बताती है कि 1998 में विश्व के मात्र 200 धनी व्यक्तियों की सम्पत्ति विश्व के 41% व्यक्तियों की समेकित आय से भी अधिक थी। इस बराबरी के हक के समय में भी धन का यह बदरबांट आधुनिक सभ्यता के मुँह पर करारा तमाचा सदृश है। ऐसी अस्वस्थ स्थिति के रहते हमारे सपने सच कैसे साबित होगे? इस सदी में तो सपने सोएं होंगे और स्पष्टतः एकसमान भी जो कि इस भेद को पाटे बिना नहीं हो सकता।

आर्थिक उदारीकरण की गैर-बराबरी- परक वैश्विक प्रक्रिया ने उसके लाभार्थियों व भंडारदारों को अपने मुनाफ नशीली दवाओं, हथियारों के धंधे तथा अन्य नाजायज किस्म के कारोबारों में निवेश का मौका दिया है, हमारे सपनों के भारत में यह भेदपरक व्यवस्था कतई नहीं चलेगी।

हमें विश्व स्तर पर रूस के समाजवादी प्रयोग पश्चिमी यूरोप के फेदियन समाजवादी प्रयोग और एशियाई सदर्भ में माम्रो के किसान केन्द्रित कम्यूनिटेरियन साम्यवाद के आर्थिक प्रयोग और भारत के स्तर पर नेहरू के मिश्रित अर्थव्यवस्था और न्याय सम्मत विकास के समाजवादी कार्यक्रम के निर्मम वैज्ञानिक विवेचन के आधार पर सबक सके सीखने होंगे और उन्हें 21वीं सदी में एक नए समाजवादी भविष्य की खोज के लिए नए आर्थिक दर्शन और आर्थिक प्रयोग का प्रेरणा स्रोत बनना होगा।

नेहरू ने कहा था कि मानव जाति का जितना नुकसान धार्मिक मतान्धता (रिलीजन डामर) ने नहीं किया था उससे कहीं अधिक नुकसान आधुनिक संदर्भ में आर्थिक मतान्धता से होने की सम्भावना है विडम्बना हैं कि उनकी यह सही दृष्टि भारत में ही कार्यान्वित नहीं हो पाई है। समाजवादी कार्यक्रम में बदलती परिस्थितियों और जरूरतों के अनुकूल जरूरी बदलाव नहीं किए गए, परन्तु यह हुआ कि समाजवाद ही पूरी तरह से भारत से अपदस्थ हो गया और उदारवादी पूँजीवाद राष्ट्र पर हावी हो गया आज जरूरत पड़ी है कि हम नेहरू के समाजवाद विषयक मूल दृष्टि पर पुनः विचार करें।

अस्तु, आबादी उपलब्ध संसाधन और मानवीय क्षमताओं के सीमित विस्तार को ध्यान में रखते हुए हम व्यवहार्य व अधि काधिक सोतों को विश्वास में लेकर एक दीर्घकालीन आर्थिक योजना बनाएँ ताकि इस स्वप्न समय में ’सर्वे भवन्तु सुखिना, सर्वे भवन्तु निरामयाः’ के परंपरा पोषित अबतक अभेद्य भारतीय आदर्श की और हमारी पेंगे बढ़ सके।

अपने सपनों को फलीभूत करने के लिए हमें पर्यावरण संरक्षा पर भी पर्याप्त ध्यान देना होगा हमें अपनी कूपमंडूक मानसिकता त्यागकर वसुधैव कुटुम्बकम् के आदर्श व विचार को अपनाना होगा ताकि जमीनी न्याय व जमीनी स्वराज पाया जा सके सभी स्वस्थ मूल्य, संस्थाएं व नीतियों विकसित हो सकेंगी।

जिस उत्पादन और उपभोग की दूषित संस्कृति ने हमें स्वच्छ जल और हवा भी पाना मुहाल कर दिया है उससे छुटकारा पाकर हम प्राकृतिक पानी और हवा को हम फिर से पाना चाहेंगे इन्हें व्यक्तिगत सम्पत्ति बनने से रोकना होगा और इनका अनियंत्रित उपभोग किया जाना भी हमें छोड़ना होगा।

तरुण मित्र संघ, अन्ना हजारे और अनुपम मिश्र जैसे जल प्रहरियों के नेक प्रयासों की बाबत हम ‘जल स्वराज’ पाने के भी आकांक्षी हैं।

गुरुदेव टैगोर ने उस भारत का स्वप्न देखा था, जहाँ ज्ञान मुक्त हो, सबको सहज ही प्राप्य हो इस गरज से पेटेन्ट एकाधिकारों से ज्ञान को स्वतंत्रत रखना भी हमारी एक चाहना होगी, सो इस सदी में कोई पेटेन्ट, कोई एकाधिकार नहीं चलेगा बल्कि अब हम बीज स्वराज पाना चाहेंगे, जिससे हमारी हल्दी, नीम जैसी परम्परा प्रयुक्त चीजों की कोई हकमारी नहीं कर सके, साथ ही, रचनात्मक भूमिका निभा सके।

भारत, जो कि जैव विविधता और सांस्कृतिक वैविधता का आंगन है, हमारे सपनों के हिसाब से तकनीकी, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक – हर क्षेत्र में एकतानी संस्कृति से ऊबर पाने में सक्षम हो सकेगा।हम उसमें अपनी सभी विविधाओं-आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक पर्यावरणीय के सिरा जगह निकाल पाएंगे।

हमारे शिल्पियों व कलाकारों को दुनिया के बेहतरीन धागों से अपना भाग्य बुनने से रोकने के लिए कोई ‘नाइक’ रिषांक-सी परदेशी पूँजी कम्पनियाँ अस्तित्व जहाँ दुनिया पर में नहीं रहेंगी यह भी हमारा सपना होगा।

21वीं सदी को अपने सपनों का भारत बनाने के लिए अन्न स्वराज’ लाना होगा इस आहार लोकतंत्र में अभी की तरह कोई भूख से नहीं बिलबिलाएगा, भूखा नहीं मरेगा, जबकि गोदाम अन्न से अटा पड़ा हो इसमें सरकार जनता से उनके आहार-अधिकार छीनकर अन्न का निर्यात नहीं कर सकेगी और न ही बेशक कोई ऐसा आयात हो सकेगा, जो हमारे कृषकों का जीना हराम कर दे आत्महत्या को बाध्य कर दे।

इस सदी में हम व्यावसायिक अमानवीय मानस वाले आधुनिक चिकित्साशास्त्र के पाप का घडा भर कर फूट जाते देखना चाहेंगे, जो मरीज को आदमी न मानकर एक आइटम’ मात्र मानने लगा है और जीवन ‘दाता’ के पद से च्युत हो गया है।

हम चाहेंगे कि वैकल्पिक पारम्परिक चिकित्सा पद्धति होमियोपैथी, आयुर्वेद, ध्यान चिकित्सा, जैसे प्राकृतिक नैदानिक उपायों की तरफ हम लौट सके तकनीकी वैज्ञानिक उपलब्धियों का केवल सर्जनात्मक उपयोग हो, सभ्यता- मानवता नाशक उपक्रमों, लड़ाई-झगड़ों में मानव अहितकारी प्रयोजनों में इनका उपयोग कदापि न हो।

स्त्रियों, दलित बालक अधिकार वंचितों को उनका इस नए युग में मानवोचित हक मिले। हम अक्सर ऋग्वैदिक काल में विद्यमान नारी स्वतंत्रता की बात कर नारी की सम्पूर्ण विवेकसम्मत स्वतंत्रता के बारे में ख्याली योजनाएं बनाते रहे हैं। इसे हम अमलीजामा पहनाएं, सपनों से यथार्थ की दुनिया में लाएं तो बेहतर सभी बच्चों को पोषणयुक्त वातावरण शारीरिक व मानसिक सुस्वास्थ्य मिले, उनके खुशियों से भरे घर हों, पढ़ने- खेलने के सुअवसर हों और किसी को बचपन खा जाने वाली चाकरी-बालश्रम न करना पड़े, दलितों को उनकी जन्म आधारित वर्जनाओं–उपेक्षाओं से मुक्ति मिले और वे सामान्यजनों की तरह समाज में हर लोकतांत्रिक अधिकार और कर्तव्य निभाने में सक्षम हों।

हमने मानव सभ्यता के हजारों सालों में एक-से-एक धर्मों / मजहबों को परखा और उनके दश झेले जाति-वर्ण-नस्ल के मानव सृजित भेद ने भी मानवता को बाँटे रखा। अब इस सदी में हम एकमात्र धर्म मानव धर्म की प्रतिष्ठा कर सके तो अच्छा।

हम इस नई बेला में उस विश्व समाज में जीना चाहेंगे जहाँ केवल प्रेम ही प्रेम ही घृणा द्वेष लेशमात्र भी न फटके जहाँ इस दुनिया को रहने लायक बनाने के लिए हर आदमी का भरसक योगदान हो सौहार्द और निर्भयता की संस्कृति सदैव राज करे।

नोबेल पुरस्कार विजेता कवि रवींद्र नाथ टैगोर के शब्दों में थोड़ी तब्दीली के साथ अपने नई सदी के सपनों का समाहार करूं, तो कहूँगा कि-
जहाँ मन हो निर्भय और हो माल गर्वोन्नत
ज्ञान भी हो खुला सबके लिए
जहाँ दुनिया बंटी न हो टुकड़ों में ओछी घर की दीवारों से
उस स्वर्गिक स्वाधीनता की ओर, काश, मेरे देश का जन-मन मुड़े!
******

[’प्रतियोगिता दर्पण’ द्वारा प्रथम पुरस्कृत और प्रकाशित (जून 2002) निबन्ध]

Language: Hindi
396 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from Dr MusafiR BaithA
View all
You may also like:
सबकुछ झूठा दिखते जग में,
सबकुछ झूठा दिखते जग में,
Dr.Pratibha Prakash
आकुल बसंत!
आकुल बसंत!
Neelam Sharma
कोरोना चालीसा
कोरोना चालीसा
नंदलाल सिंह 'कांतिपति'
*दासता जीता रहा यह, देश निज को पा गया (मुक्तक)*
*दासता जीता रहा यह, देश निज को पा गया (मुक्तक)*
Ravi Prakash
पास आकर मुझे अब लगालो गले ,
पास आकर मुझे अब लगालो गले ,
कृष्णकांत गुर्जर
धधकती आग।
धधकती आग।
Rj Anand Prajapati
कलकल बहती माँ नर्मदा !
कलकल बहती माँ नर्मदा !
मनोज कर्ण
अफसाने
अफसाने
ब्रजनंदन कुमार 'विमल'
संवेदना ही सौन्दर्य है
संवेदना ही सौन्दर्य है
Ritu Asooja
तुम मेरे हम बन गए, मैं तु्म्हारा तुम
तुम मेरे हम बन गए, मैं तु्म्हारा तुम
Anand Kumar
चरागो पर मुस्कुराते चहरे
चरागो पर मुस्कुराते चहरे
शेखर सिंह
हम पचास के पार
हम पचास के पार
Sanjay Narayan
पृष्ठ बनी इतिहास का,
पृष्ठ बनी इतिहास का,
sushil sarna
दश्त में शह्र की बुनियाद नहीं रख सकता
दश्त में शह्र की बुनियाद नहीं रख सकता
Sarfaraz Ahmed Aasee
मोहब्बत में मोहब्बत से नजर फेरा,
मोहब्बत में मोहब्बत से नजर फेरा,
goutam shaw
परिवार का सत्यानाश
परिवार का सत्यानाश
पूर्वार्थ
अगर मैं कहूँ
अगर मैं कहूँ
Shweta Soni
नींद तब आये मेरी आंखों को,
नींद तब आये मेरी आंखों को,
Dr fauzia Naseem shad
कोई भी मजबूरी मुझे लक्ष्य से भटकाने में समर्थ नहीं है। अपने
कोई भी मजबूरी मुझे लक्ष्य से भटकाने में समर्थ नहीं है। अपने
रामनाथ साहू 'ननकी' (छ.ग.)
"परमात्मा"
Dr. Kishan tandon kranti
हर कोई समझ ले,
हर कोई समझ ले,
Yogendra Chaturwedi
2864.*पूर्णिका*
2864.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
शीर्षक तेरी रुप
शीर्षक तेरी रुप
Neeraj Agarwal
सत्य की खोज
सत्य की खोज
लक्ष्मी सिंह
रिश्तों में दोस्त बनें
रिश्तों में दोस्त बनें
Sonam Puneet Dubey
हेच यश आहे
हेच यश आहे
Otteri Selvakumar
■ मिली-जुली ग़ज़ल
■ मिली-जुली ग़ज़ल
*प्रणय*
आ गई रंग रंगीली, पंचमी आ गई रंग रंगीली
आ गई रंग रंगीली, पंचमी आ गई रंग रंगीली
सुरेश कुमार चतुर्वेदी
मैं जिस तरह रहता हूं क्या वो भी रह लेगा
मैं जिस तरह रहता हूं क्या वो भी रह लेगा
Keshav kishor Kumar
बेटियों  को  रोकिए  मत  बा-खुदा ,
बेटियों को रोकिए मत बा-खुदा ,
Neelofar Khan
Loading...