(20) सजर #
मैं सजर हूँ ।
मेरी भाषा मौन है ।
किन्तु इतना ही नहीं
मेरी आकृति भी तो है भाषा मेरी
जो दिखाती है, बताती है कहानी
युगों युगों से , गात पर मेरे पड़े ,
क्रूर लहरों के निर्दयी आघातों की ।
इन्हीं लहरों ने तराशा है मुझे
इन्हीं ने चिकनाहटें दीं,और गोलाकृति मुझे |
किन्तु आँसू एक जो अंतस में मेरे है छिपा
बन गया जीवाश्म जो, देखोगे हीरे सा सजा
दे रहा आकार मेरे बाह्य-अंतस रूप को
है सहायक वो भी रचना में मेरे भूगोल की
और मेरी भौतिकी उसके ही बल पर है बनी ।
एक दिन जब चूरा-चूरा कर मुझे खंडित करोगे
पाके इस हीरे को , खुशियों से भरोगे
गले के इस हार में तुम पेंडुलम सा सजा लोगे |
किन्तु देखो,
चोट जब करना मेरे दुखते ह्रदय पर
सधे हाथों से ही करना
सावधानी बरत लेना
टूट न जाए कहीं, मन में छिपा हीरा हमारा
टूट न जाए कहीं, मन में छिपा हीरा हमारा |
स्वरचित एवं मौलिक
रचयिता : (सत्य ) किशोर निगम
# सजर= (ढेलेनुमा पत्थर, जिसके अन्दर जीवाश्म,एक नग जैसा बन जाता है )