‘1857 के विद्रोह’ की नायिका रानी लक्ष्मीबाई
दूसरों की जूठन खाने वाले कौआ, गिद्ध या श्वान सौ नहीं पांच सौं वर्ष जीवित रहें लेकिन वह शौर्य, प्रशंसा और श्रेष्ठ वस्तुओं के अधिकारी नहीं हो सकते और न इनका इतिहास स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जा सकता है। किन्तु सिंह की तरह केवल दो चार वर्ष ही जीवित रहने वाले व्यक्ति की शौर्य-गाथाएं युग-युग तक यशोगान के रूप में जीवित रहती हैं। इतिहास में वही आत्म बलिदानी दर्ज हो पाते हैं, जिनमें आत्म-बल, अपार धैर्य शक्ति और स्वयं को आहूत कर देने का अदम्य साहस होता है।
‘1857 के विद्रोह’ की नायिका रानी लक्ष्मीबाई यद्यपि 24 वर्ष ही जीवित रहीं और उन्होंने केवल 9 माह की झांसी पर शासन किया। किन्तु रानी के शासन के ये 9 माह इस बात के गवाह हैं कि साम्प्रदायिक सदभाव, प्रजा सेवा, कुशल रणनीति, अपूर्व साहस की एक ऐसी मिसाल थीं जो इतिहास में दुर्लभ है।
अंग्रेजों से विद्रोह करने वाले अनेक राजघरानों के राजा महाराजा, नवाब और जमींदार 1857 की क्रान्ति में वह स्थान न पा सके जिस स्थान पर आज इतिहास में रानी लक्ष्मीबाई खड़ी हैं। वे इसलिए सबसे महान और बड़ी हें क्योंकि अपने अद्भुत रणकौशल के बल पर उन्होंने हर पराजय के समय भी अंग्रेजों और उनकी सेना को गाजर-मूली की तरह काटते हुए, एक नहीं अनेक अवसरों पर विजय में तब्दील कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई की वीरता और उनके अदम्य साहस की उनके घोर दुश्मन और उनके खिलाफ युद्ध लड़ने वाले अंग्रेजी सेना के अफसर हयूरोज भी कह उठते हैं-‘‘शत्रु-दल में अगर कोई सच्चा मर्द था तो वह झांसी की रानी ही थी।’’
अपने शत्रु से भी अपनी तारीफ करा लेने वाली रानी लक्ष्मीबाई शुरू में भले ही अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति कोमल भावना रखती हों लेकिन जब उनकी अंग्रेजों से ठन गयी तो उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य को पूरे भारतवर्ष से जड़ से उखाड़ फैंकने का जो संकल्प लिया उससे वे कभी पीछे नहीं हटीं।
रानी लक्ष्मीबाई बाल्यावस्था से ही अपार पराक्रमी, तेजस्वी, और अपनी बात पर अडिग रहने वाली स्त्री थी। उनका बाल्यकाल का नाम मनुबाई था। मनुबाई को बचपन से ही घुड़सवारी और विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र चलाने का शौक था। लगभग 8 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह झांसी के महाराज गंगाधर राव से हो गया। विवाह के 8 वर्ष बाद सन् 1851 में उसने एक पुत्र को जन्म दिया किन्तु राजा और रानी का दुर्भाग्य कि वह भी चल बसा। पुत्र वियोग के कारण महाराज गंगाधर को संताप और शोक ने घेर लिया। उनकी तबियत निरंतर बिगड़ती गयी और वे एक दत्तक पुत्र को गोद लेने की घोषणा के कुछ दिनों बाद ही 21 नवम्बर 1853 को परलोक सिधार गये |
गंगाधर राव के मरते ही अंग्रेज मेजर एलिस ने झांसी के खजाने पर ताला लगा दिया और 27 फरवरी 1854 को झांसी के राज्य को ब्रिटिश शासन में मिला देने की घोषणा कर दी गयी और दत्तक पुत्र दामोदर राव को झांसी के उत्तराधिकारी के रूप में अमान्य घोषित कर दिया गया। यहीं नहीं कानपुर और झांसी में 4 जून को जो सैन्य विद्रोह हुआ, जिसमें विद्रोहियों के नेता काले खां और तहसीलदार अहमद हुसैन ने अपने प्रधान अफसर कप्तान डनलप और टेलर के साथ-साथ 74 अंग्रेज पुरुष, 16 स्त्रियों और 23 बच्चों को झांसी में मौत के घाट उतार दिया और झांसी के किले पर कब्जा कर लिया और बाद में ‘‘खल्क खुदा, मुल्क बादशाह का, अमल महारानी लक्ष्मीबाई का’’ नारा लगाते हुए दिल्ली की ओर कूच कर गये तो इस अंग्रेजी की सेना के सैन्य विद्रोह और अंग्रेजों के कत्लेआम के लिये अंग्रेजों ने हर प्रकार के दोष लक्ष्मी बाई के सर मढ़ दिये। इससे पूर्व भले ही रानी को मजबूरी में ही सही पर इन्ही किले में निवासी अंग्रेजों की हर सम्भव सहायता करती थी यहां तक कि तीन-तीन मन आटे की रोटियां पकवाकर उन्हें भिजवाती थी | किन्तु इन अंग्रेजों का कत्लेआम होने के बाद जब वहां कोई अंग्रेज न रहा तो रानी ने सम्पूर्ण झांसी का प्रबन्धन अपने हाथ में ले लिया।
रानी लक्ष्मीबाई को जून 1857 से मार्च 1858 तक नौ महीने ही शासन करने का अवसर मिला लेकिन इस दौरान शासक के रूप में उसने अपने घर के शत्रुओं जैसे सदाशिव राव नाम व्यक्ति जो अपने को गंगाधर राव का निकट सम्बन्धी बतला झांसी की गद्दी हड़पना चाहता था, युद्ध में परास्त कर गिरफ्तार किया। ओरछा के दीवान नत्थे खाँ ने अंग्रेजों के इशारे पर जब झांसी पर चढ़ाई की तो उसे भी पराजित कर ओरछा जाने को विवश कर दिया।
रानी के इस पराक्रम को देख उस घर के या अन्य-राज्यों के राजाओं की रानी से टक्कर लेने की तो फिर हिम्मत नहीं हुई किन्तु 19 मार्च 1858 को झांसी के नजदीक चंयनपुर नामक स्थान पर पड़ाव डालने के उपरांत 20 मार्च की सुबह जब सर ह्यरोज अपनी सेना को लेकर झांसी पहुंचा और जिस समय रानी से उसका युद्ध हुआ तो रानी ने अपने गुरु तात्याटोपे, सेनापति रघुनाथ हरी नेवालकर, गोशखान, अपने भाई कर्मा आदि के साथ 13 दिन तक युद्ध लड़ा | उस युद्ध का वर्णन एक अग्रेज अफसर डॉ. लो ने इस प्रकार किया है-
‘‘शत्रु की अत्यधिक अग्निवर्षा, बन्दूकों और तोपों की गड़गड़ाहट, अग्निवणों की सरसराहट, बड़े-बड़े पत्थरों को लुड़काने से होती भयावह धमाके और भारी-भारी पेड़ों के नीचे लुढ़कने की ध्वनि से जो प्रलय उत्पन्न हुई उससे अंग्रेजी सैनिकों के पांव उखड़ने लगे।’’
अग्रेजों के साथ 13 दिन निरंतर हुए युद्ध में आखिर अंगे्रज जब किले पर कब्जा करने में कामयाब हो गये तो रानी मर्दानी पोशाक पहनकर और अपने दत्तक पुत्रा दामोदर को पीठ पर पटके से बांधकर अपने दो सौ सिपाहियों के साथ कालपी चल दी। झांसी से 21 मील दूर भांडेर के पास उसने अपना पीछा करने वाले अंग्रेज अफसर कप्तान वाॅकर को घोड़ा दौड़कर धराशायी कर दिया और वे 24 घंटे में 102 मील का रास्ता पार कर कालपी पहुंच गयीं।
अंग्रेज अफसर ह्यूरोज ने 15 मई को कालपी में फिर रानी को घेर लिया। वहां अपने सैनिकों और विद्रोहियों को लेकर गुलौली के पास रानी का अंग्रेजों से फिर भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में रानी के साथ लड़ रहे विद्रोही सैनिकों के टूटते मनोबल को देखते हुए जब रानी ने कालपी के किले को सुरक्षित नहीं समझा तो उसने ग्वालियर की ओर प्रस्थान कर दिया और ग्वालियर जाकर अंग्रेजभक्त शासक जीजाजी राव और दिनकर राव को किले से बाहर खदेड़कर ग्वालियर का किला अपने कब्जे में ले लिया।
16 जून को ह्यूरोज अपनी सेना लेकर ग्वालियर के निकट मोरार में आकर फिर रानी को घेरने लगा। रानी ने विद्रोही सैन्यदल को उसका मुकाबला करने भेजा | किन्तु यह सेना केवल दो घंटे में ही पराजित हो गयी। यही नहीं कुछ ग्वालियर के विद्रोही सैनिक फिर अंग्रेजों से जा मिले। यह अप्रत्याशित और अत्यंत विपरीत दशा देखकर रानी 17 जून को ग्वालियर के निकट ‘कोटा की सराय’ नामक स्थान पर स्वयं रणक्षेत्र में कूद पड़ी। इस भीषण संग्राम में जहां रानी ने अनेक अंग्रेज अफसरों और सैनिकों को चारे की तरह काटा, वहीं अंग्रेजों की भीषण गोली-वर्षा के बीच उसके घोड़े को कई गोलियां लगीं। नाले को फांदने की कोशिश में वह पैर फिसल जाने के कारण गिर पड़ा। इसी बीच एक अंग्रेज सवार ने उसके नजदीक जाकर तलवार से रानी के चेहरे का आधा भाग काट डाला। घायल रानी ने पलटकर उस सवार पर ऐसा वार किया कि वह वहीं ढेर हो गया।’
घावों से अत्यधिक खून बहने के कारण रानी को उनका सरदार एक झोंपड़ी में ले गया। वहां उसने गंगाजल पिया और भारतमाता की जय बोलते हुए अपने प्राण त्याग दिये। कौन नहीं करेगा ऐसी वीरांगना पर गर्व | कौन नहीं बोलेगा- रानी लक्ष्मीबाई की जय?
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