17) ऐ मेरी ज़िंदगी…
ऐ मेरी ज़िंदगी सुन,
सुन तू हाल-ए-दिल मेरा,
मुखातिब हूँ आज तुझी से
ऐ मेरी ज़िंदगी…
सोचा था तुझसे बेहतर, तुझसे बढ़कर,
तुझसे प्यारा, सच्चा हमदम नहीं दुनिया में कोई,
मगर शायद गलत सोचा था।
बदज़ुबानी करनी पड़ेगी तुझसे,
कभी सोचा न था।
ज़ुर्रत न की थी कभी ख़्वाब में भी मगर,
तेरे सुलूक ने मजबूर कर ही दिया,
इंतहा हो गई अब तो
तेरे ज़ुल्म-ओ-सितम की।
हां, तो सुन,
रातें काटी हैं मैंने
तेरे ही इंतज़ार में आज तक,
नींद मेरी नज़र बन कर
दरवाज़े पर टिकी रही आज तक,
कि किसी न किसी बहाने,
किसी न किसी शक्ल में,
तू शायद नज़र आ जाए।
हर पल दस्तक का एहसास होता,
ठिठकती, झिझकती, गौर से सुनती,
खामोशी के सिवा मगर कुछ न सुन पाती।
मायूस होकर उसी लम्हा दिल को समझाती,
नादान दिल, ज़िंदगी कहाँ से दस्तक देती!
यह तो आहट थी
नींद और आँखों की कशमकश की।
ज़िंदगी तो किस्मत वालों को मिलती है,
और फिर ख़ामोशी से आती है
और बदकिस्मती देखकर
ख़ामोश ही लौट जाती है।
सुबह मगर ऐ ज़िंदगी,
अपने दरवाज़े पर तेरे कदमों के निशां देखकर
दिल तड़प उठा।
यहाँ ढूँढा, वहाँ खोजा
मगर तू नहीं थी,
कहीं नहीं थी।
हाँ, मगर तेरा पैगाम ज़रूर था
कि तू आएगी, ज़रूर आएगी
मगर तेरे लिए छोड़ दूँ
अपने दिलबर को मैं।
तो सुन मेरी ज़िंदगी,
दिलबर के लिए तुझे छोड़ दूँ
तो कोई गम नहीं,
तेरे लिए मगर उसे छोड़ दूँ,
हरगिज़ नहीं।
मायूस होकर तुझसे उसे पाया,
पाकर उसे छोड़ दूँ, हरगिज़ नहीं।
वह है तो तू है,
ऐ ज़िंदगी सुन,
वह है तो तू है, बहार है,
वह नहीं तो कुछ नहीं।
हाँ, तेरे लिए उसे छोड़ दूँ,
हरगिज़ नहीं।
तू तो ऐ ज़िंदगी सबको मिल जाती है,
किसी न किसी शक्ल में, कहीं न कहीं,
किसी न किसी बहाने से।
मगर उसके जैसा हमदर्द,
उसके जैसा महबूब माँगे नहीं मिलता।
उससे मुहब्बत के फसाने जहां सुनेगा।तुझसे मुहब्बत करके क्या मिलेगा मुझे,
बता।
नहीं, नहीं चाहिए मुझे तू,
जा, जा चली जा,
वरना तेरी चाह में मैं
कहीं उसे ही न खो दूँ।
अलविदा-अलविदा-अलविदा
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नेहा शर्मा ‘नेह’