(14) जान बेवजह निकली / जान बेवफा निकली
हलकी ठोकर लगी कि तुमने बता दिया “तकदीर खफा है ”
उस “सच्चे” का कौन सहारा जिसकी जान बेवजह निकली ?
इसके भ्रमजालों से उसने मुक्त किया था केवल खुद को ,
औ” उसने कह डाला रोकर “मेरी जान बेवफा निकली ”
उस “सच्चे” का कौन सहारा जिसकी जान बेवफा निकली ?
रेशा रेशा तार हो गया , गुरिया गुरिया चूर हो गयी
दोजख दोजख बनी जिन्दगी , जिसकी जान बेवफा निकली |
अगर कहीं ईश्वर दिख जाए , पकड़ गरदनी उसकी पूछूँ
“तूने भोगा दर्द किसी का , जिसकी जान बेवफा निकली ?”
धज्जी धज्जी कपडे पहने , मतवाला सा घूम रहा है
मुर्दा बेटे की माँ जैसा , जिसकी जान बेवफा निकली |
नौजवान बेटे की अर्थी , अपने सीने से लिपटाए
पडा हुआ है बीच सड़क पर , इसकी जान बेवफा निकली |
मंडप के ही नीचे जिसकी मांग लुटी सिंदूर लुट गया
वह अभागिनी विधवा देखो जिसकी जान बेवफा निकली |
स्वरचित एवं मौलिक
रचयिता : (सत्य ) किशोर निगम