13) परवाज़
कब कबूल हुआ है ज़माने को,
तक़दीर को हमारा मिलन।
खौफे-रुस्वाई ने भी तो
ज़माने का ही साथ दिया हरदम।
किनारा कर सकूँ तुमसे
दिल को गवारा न हुआ कभी,
तुमने मगर किनारा क्यूँ कर लिया
ज़िन्दगी से मेरी!
तुम तो संगदिल हो गए,
दिल मगर तुम्हारी ही जुस्तजू में
भटक रहा है अब तलक।
तुम्हारे ही ख्वाबों के परों पर बैठ
परवाज़ भरती हूँ,
सोचता है दिल
शायद यही परवाज़ मुक़द्दर है
मेरी ज़ीस्त का…
यूँ ही सही…
परवाज़ भी तो तुम्हारे ही ख्यालों के बायस है,
तुम तो मेरे ग़मगुसार न बन सके,
दिल मगर फिर भी परवाज़ भरता है
तुम्हारी जानिब,
कि तुम गम के अंधेरों में
भटक न जाओ कहीं।
हर गम तुम्हारा तुम्हारे करीब आने से क़ब्ल ही
ले उड़ती हूँ अपनी मौज-ए-ग़म की जानिब।
यूँ ही परवाज़ लेता रहेगा दिले-मुज़्तर,
सुबहे-ज़ीस्त न आ जाए जब तलक।
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नेहा शर्मा ‘नेह’