12. साँसों का पहरा
दर दर चोट तुझ से जो मैं खाया हूँ।
दर्द-ए-दिल को अक्सर छिपाया हूँ।।
तेरे इश्क़ के खंज़र ने दिये जो ज़ख्म।
उस ज़ख्म को तहे दिल से अपनाया हूँ।।
मरहम भी रो पड़े देख इस मंज़र को।
जो ज़ख्मों को मैं अश्क़ों से नहलाया हूँ।।
तेरे ग़म के सैलाब से बने इस समंदर को।
अपना समझ कर ख़ुद में ही समाया हूँ।।
ज़रा देख! तेरे पल भर की वफ़ा को मैं।
हर त्यौहार समझ कर दिल से मनाया हूँ।।
यक़ीन कर ले अब भी मुझ पे, ऐ बेवफा !
वल्लाह! तुझे अब तक नही मैं ठुकराया हूँ।।
इस रूह-ओ-जान को बस तेरा ही इंतेज़ार है।
अपने साँसों का पहरा तेरे लिए ही लगाया हूँ।।
मो• एहतेशाम अहमद,
अण्डाल, पश्चिम बंगाल, इंडिया