(12) भूख
मैंने देखी है वह भूख
जिसमें नागिन खा जाती अपने अण्डों को,
बाघिन खा जाती है अपने बच्चों को ।
मैंने देखी है भूख
जो खा जाती है–
नैतिकता को , धर्म को , आदर्शों को , सिद्धांतों को ।
मत दो उलाहने इन सब के खो जाने का ।
बचाना है इन्हें हमारे पास
तो शांत करो पहले भूख ।
भूख जो अभिशाप है हमारी
और हवस है तुम्हारी ।
आस्था के अंधेरों में मत भटकाव हमें ।
रहकर देखो भूखे कुछ दिन
और देखो तुम्हारे भोजन को
गिद्धों के द्वारा लुटते हुए ।
फिर करना धर्म , आस्था और आदर्शों की
बड़ी बड़ी बातें ।
पर तुम्हें यह देखने का मौका
वह ऊपर वाला देगा कब ?
“जर – खरीद गुलाम” जो ठहरा
तुम्हारे “पिछले जन्मों” के
“पुण्यों ” का ।
स्वरचित एवं मौलिक
रचयिता : (सत्य ) किशोर निगम