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पढ लिख कर भी जीवन बेकार,
मूर्खों को आज ढूंढ रही सरकार ।
है सच कोरोना के मारे से,
हुआ अनेक जन बेरोजगार ।
सबको पर रहा, आज यहाँ पर,
ताबर तोड़ रोटी की मार ।
करते थे जो मेहनत मजदूरी,
नगर दिया उन्हे दुत्कार ।
जो थे और निजी संस्था के कर्मी,
बंद पड़ा उनका भी द्वार ।
कहां जाएंगे दोनों भूखे,
बचा नहीं कोई आधार ।
दिन दिन बीत रहा कारण कोरोना से,
बिलख ,बिखर रहा इनका परिवार ।
दोनों के हैं त्रासद जीवन,
प्रत्यक्ष एक हैं, एक रहा लुप्ताकार ।
सिन्ध मध्य में फंसी है नैया,
कौन बनेगा इनका पतवार ।
हे ईश्वर! तुम इस धरा के,
तुम्ही बनो अब पालनहार ।
* उमा झा*