(11) मैं प्रपात महा जल का !
तुंग हिमगिरि से उफनता,
मैं प्रपात महा जल का !
कल्पना की नील स्वर्णिम
परी का आँचल नहीं हूँ ।
और न ही कल्पना का
मैं भयानक दैत्य हूँ ।।
वास्तविकता के धरातल पर उमड़ता ,
दृढ़ शिलाओं पर उफन कर चोट खाता ,
तोड़ता मैं रूढ़ियों को ,
स्वयं को बिखरा रहा हूँ !
तुंग हिमगिरि से हजारों हाथ नीचे ,
ह्रदय का भय दमन करके ,
बेझिझक मैं कूदता हूँ ,
अधः गति में चल रहा हूँ ।
कल्पना की नील स्वर्णिम
परी का आँचल नहीं हूँ
और न ही कल्पना का
मैं भयानक दैत्य हूँ ।।
यह अधः गति ,पहुँच समतल में सरित का ,
रूप दे देगी मुझे उपयोगितामय ।
यह अधः गति सींच खेतों को कभी ,
शस्य- श्यामल भूमि देगी जगत को ।
यह अधः गति ही पहुंचकर अंत में
महासागर अंक भी देगी मुझे ।
यह अधः गति निरर्थक जीवन अपाकृत
को बना देगी सनिश्चय सार्थक ।
तोड़ता मैं रूढ़ियों की जड़ शिलाएं , कूल-बंधन ,
उस अपरिमित पुनर्जीवन की दिशा में बढ़ रहा हूँ ।
कल्पना की नील स्वर्णिम परी का आँचल नहीं हूँ
और न ही कल्पना का मैं भयानक दैत्य हूँ ।।
रोक कब मुझको सका ,यह जगत निर्मम , निरर्थक सा,
बाढ़ में हर बाँध को मैं तोड़ता बढ़ता रहा हूँ . ।.
जब कभी मैं बँधा सीमित से क्षणों को ,
शक्ति के आह्लाद का संचार मैं करता रहा हूँ ।
सूर्य ने बेंधा सहस्रों बाण से जब ,
विश्व पर मैं मेघ बन कर छा गया हूँ ।
और सत्ता सूर्य की भी ढांप कर कुछ क्षणों को ,
ओस, कुहरा, मेघ बन बरसा किया हूँ .।
इन्द्रधनु बन बंधनों में भी विहँसता ,
शांति से मिट, बरस , फिर नद बन गया हूँ ।
कल्पना की नील स्वर्णिम परी का आँचल नहीं हूँ
और न ही कल्पना का मैं भयानक दैत्य हूँ ।।
स्वरचित एवं मौलिक
रचयिता : (सत्य ) किशोर निगम