(5) नैसर्गिक अभीप्सा –( बाँध लो फिर कुन्तलों में आज मेरी सूक्ष्म सत्ता )
बाँध लो फिर कुन्तलों में आज मेरी सूक्ष्म सत्ता,
आज मदरस बना मुझको , नयन में फिर से समा लो
आज बनकर रक्त मैं दौड़ा फिरूँ तेरी नसों में
आज रोमावलि पुलक में दौड़ जाऊं तव बदन में
आज थिरकन बन तेरी त़ा थेई तत तत नाच जाऊं
आज कम्पित स्वांस में तव श्वांस बनकर समा जाऊं
लीन कर लो मुझे खुद में , आज “मैं ” को “तुम ” बना लो
आज मदरस बना मुझको , नयन में फिर से समा लो
ओ सुधाकर ! मैं सुधामय चांदनी बन जाऊं तेरी
ओ दिवाकर ! रश्मियाँ तेरी बनूँ मैं ज्योति पोषक
श्वांस तेरी मैं , मेरा हर रोम तुझमे हो समाहित
आज पावक और ऊष्मा सा हमारा साथ हो
आज समरस हों यहाँ तक , “द्वैत ” को “अद्वैत ” कर दो
आज मदरस बना मुझको , नयन में फिर से समा लो
ओ ! झनकती तडकती विद्युत् -लहर बन
मुझ सघन-घन-अंध में तुम समा जाओ
ओ छलकते किलकते निर्झर उच्श्रंखल !
मुझ महानद -अंक में अब आ भी जाओ
आज आ आगोश में तुम स्वयं को मुझमें समा लो
आज मदरस बना मुझको , नयन में फिर से समा लो
स्वरचित , मौलिक
रचयिता : (सत्य ) किशोर निगम