?गज़ल?
??ग़ज़ल??
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिममुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
#गज़ल बह्र – 1222 /1222 /1222 /1222
कभी सोचा नहीं था वक़्त ऐसा भी नज़र होगा
जहां में आदमी को आदमी ही देख डर होगा/1
दिखाया आज कोरोना ने मंज़र खौफ़ का ऐसा
नगर गाँवों हुये सूने जहाँ देखो असर होगा/2
जनाज़ों की कतारें आज शमशानों में लगती हैं
कहीं रोता शवों को देख गंगा का जिग़र होगा/3
जिन्हें अवसर तलाशी आपदा में भी दिखाई दे।
मेरे मौला बुरा इससे कहीं उनका सफ़र होगा/4
डरे मानव यहाँ मानव से मोहब्बत मगर दिल में
कहीं साँसों का जीवन से दिखे होता समर होगा/5
अभी हल एक एहतियात बीमारी से लड़ने की
ज़रा भी जाँ या धन प्यारा तुम्हें लगता अगर होगा/6
भगाओ डर दिलों से जोश से हर काम करना तुम
अँधेरों से उजालों में सजा दिल का नगर होगा/7
निभाओ तुम यहाँ रस्में मगर कुछ शौक़ कम करना
हुई जो भीड़ कोरोना भी क़ातिल बन सदर होगा/8
पहन मास्क़ रखो दो गज़ बना दूरी अभी ‘प्रीतम’
यही अब ठान कोरोना से हम सबका गदर होगा/9
#आर.एस.’प्रीतम’
सर्वाधिकार सुरक्षित ग़ज़ल