?अभिशापित आदित्य ?
० अरुण कुमार शास्त्री एक ? अबोध बालक
अरुण अतृप्त
?अभिशापित आदित्य ?
चले गए आदित्य अंधेरा हो गया
सुबह सुबह ही तो निकले थे
जग में था उजाला
पशु पक्षी भी तम्हें देख
खुश होते उनके चहरे खिल जाते हैं
तुम्हें देखकर मन भर आता है
होता दृश्य सुमधुर सृजन सुखवाला
क्यों चले गए आदित्य
अन्धेरा फिर से छाया
तुम तो कुछ ही घंटों
को आते हो फिर चले जाते
हम ठगे देखते रह जाते
पर फिर से अंधेरा छाया है
मन में उठी थी जो किरण
सुबह-सुबह उसका मुंह मुरझाया है
समझ नहीं आता है मुझको
रोज सुबह तुम निकलते हो
पर शाम के ढलते ही छुप जाते हो
क्यों नहीं रुक पाते हो
जब एक बार निकलते हो
रोज रोज आते हो
रोज रोज चले जाते हो
कोई तो मजबूरी होगी
क्या कोई मुश्किल में है
तुम्हारा प्यारा
या फिर तुम्हारी कोई मजबूरी होगी
हमें बताओ हमें सुनाओ
क्या दुविधा मन में पाले जाते हो
सुबह-सुबह निकलते हो
सांझ ढले छुप जाते हो
क्या तुम अभी शापित हो
हम जैसे , क्या तुम को कोई दुख है
क्या कोई तुम्हारा इंतजार करता है
जिसके कारण हो तुम आते जाते
है छोटी सी जिज्ञासा मेरी
ये मन में उठती रह्ती है देख तम्हें
इसीलिए मैं पूछा करता
हे आदित्य क्यों नहीं बताते हो
चले गए आदित्य अंधेरा हो गया
सुबह सुबह जब निकले थे
कितनी खुशियां फैलाते हो
हम मानस क्या पशु-पक्षी भी
देख तुम्हें कितने खुश हो जाते हैं
तुम्हारे ढलते ही अपना सा मुंह लटकाते हैं
अंधेरे से हम सभी को डर लगता है
फिर तुम्हारा इंतजार करते हैं
सुबह सुबह जब तुम आते हो
नमन तुम्हें कर पाते हैं
हे आदित्य बार-बार तुम क्यों आते जाते हो
एक बार जब आते हो
तो फिर क्यों नहीं रुक जाते हो
आशा करते हैं हम तुमसे
इसका उत्तर तुम दोगे ही
जो जिज्ञासा उप जी मन में
उसको शांत करोगे ही