? मेरे हिस्से का आकाश?
डा ० अरुण कुमार शास्त्री -एक अबोध बालक -अरुण अतृप्त
मेरी खिड़की से भी इक आकाश दिखाई देता है ।।
मेरे अरमानो को जो निसदिन परवाज़ दिया करता है
मैं उड़ सकता हूँ या के नहीं इसके तो कोई मानी ही नही
इसके रहने से मेरे दिल में भी ये एहसास जगा करता है
जिंदा हूँ मैं मुझमें भी कोई इन्सान रहा करता है
मेरी खिड़की से भी आकाश दिखाई देता है ।।
तेरे दिल की तो यारा तू ही जान सकेगा
अपनी अपनी मुस्कान खिला कर जग से पहचान करेगा
कितने पानी में रहता है , और कितना तू गहरा है
मुझको तो तब ही मालूम पड़ेगा जब तू बात करेगा
मेरी खिड़की से भी इक आकाश दिखाई देता है ।।
मुझसे लेकर तुझसे लेकर कितने आये चले गये
बातों यादों के सपने संग जो पर फैलाये दूर गये
कुछ नाम किये कुछ काम किये कुछ सोच लिये
कुछ कुछ तो सच में ऐसे थे जैसे हो अमृत ही पिये
लेकिन उनको भी जाना था सच में ही जाना था
ये दुनिया एक सराय है नहीँ सबका यहाँ ठिकाना था
मेरी खिड़की से भी इक आकाश दिखाई देता है ।।
सबकी करनी सबको भरनी पर कर्म सभी के मनमाने
इसकी चुग़ली उससे करनी उसकी चुग़ली उससे करनी
अपनी करनी को बेहतर कहना उसकी को कमतर कहना
ये रीत यहां कितनी गहरी साजिश जैसे कोई हो ठहरी
मेरी खिड़की से भी इक आकाश दिखाई देता है ।।
सबके अरमानो का मुझसे ये इक रूप गहा करता
मैं उड़ सकता हूँ या के नहीं इसके तो कोई मानी ही नही
मेरे अरमानो को जो निसदिन परवाज़ दिया करता है
इसके रहने से मेरे दिल में भी ये एहसास जगा करता है
जिंदा हूँ मैं मुझमें भी कोई इन्सान रहा करता है
मेरी खिड़की से भी इक आकाश दिखाई देता है ।।