? तुम बिन सखी री ?
डॉ अरुण कुमार शास्त्री ?एक अबोध बालक?अरुण अतृप्त ??
जज्ब जज्बात जब
करने आ जाते हैं
मन के मौलिक सम्बाद
तब मुखरित हो जाते हैं ।।
कुछ भी मांगों उर ही उर में
चुपचाप वही अंतर्मन में
भीगे भीगे सपने बन कर
छुप छुप गुप् चुप उतर आते हैं ।।
जज्ब जज्बात जब
करने आ जाते हैं
मन के मौलिक सम्बाद
तब मुखरित हो जाते हैं ।।
तरकीब से तरतीब के तरीके
तुरत फुरत फुरसत में उभरा करते हैं
मेरी कोमल भावनाओं के संग
अविरल फिर मोर उड़ा करते हैं ।।
जज्ब जज्बात जब
करने आ जाते हैं
मन के मौलिक सम्बाद
तब मुखरित हो जाते हैं ।।
तुम चन्द्र घटा मैं मन की छटा
तुम जल में सूरज की छवि कोई
तुम लहराती लहरें स्वर की नभ में
जैसे हो चंचल चपल किरण जल में ।।
जज्ब जज्बात जब
करने आ जाते हैं
मन के मौलिक सम्बाद
तब मुखरित हो जाते हैं
तन का कोना तन में रह कर
रीता रीता सा चुभता है
बिन तेरे सखी री ये जीवन
मुझको कोई अटक अंतरा
गीतों का , अटपटा अधूरा लगता है ।।
जज्ब जज्बात जब
करने आ जाते हैं
मन के मौलिक सम्बाद
तब मुखरित हो जाते हैं ।।