💐 गुजरती शाम के पैग़ाम💐
डॉ अरुण कुमार शास्त्री
एक अबोध बालक 💐💐 अरुण अतृप्त
💐 गुजरती शाम के पैग़ाम💐
मैं तिल तिल बढ़ती अपनी उम्र को
देख खुश होता रहा ।।
ऊपर वाला चुपचाप हर रोज उसमें से
एक दिन कम करता रहा ।।
मैंने बुने सपने बड़े बड़े भविष्य के
सोच कर जिनको
कि मैं खुश हो ता गया ।।
झूटी खुशी के बागवां का चमन यूं
फूलता फलता गया ।।
बचपना बीता जवानी की जिंदाबाद
के नारे लगा लगा ।।
और जवानी बीती देख देख
अपनी बाहों की मछलियां ।।
आनंद में निस दिन छप्पनभोग का लेता रहा
ऊपर वाला चुपचाप हर रोज मेरे दिन गिनता रहा ।।
कुछ समझ आता इस समझ के
फेर का समीकरण मुझको जबतलक ।।
बो बा कायदा उनका गणित जयात्मिय
आधार पर गढ़ता गया।।
हर गुजरती शाम से सीखा न
मैने कुछ भी आज तक ।।
हालांकि हर गुजरती शाम से ही
वो मुझको समझाता रहा ।।
दिन फिरे फिरते रहे फिर घडी आई हिसाब की
फैसला होकर फरमान जब सुनाया जाने लगा ।।
खून के आँसूओ से मैं बिस्तर पर पड़ा
तकिया अपना भिगोता रहा ।।
याद कर बीते दिनों की याद को
जो गुज़ारे भाव मिट्टी के सुनहरा जीवन व्यथा ।।
जिंदगी एक आईना होती है साहिब,
हर शख्स के किरदार की
ये बात जिंदगी रहते कब समझता है
अबोध उस परवरदिगार , करतार की ।।