💐💐प्रेम की राह पर-21💐💐
25-मेरे मन्तव्य का भान न हो सका तुम्हें।क्या तुम्हारे अंतःकरण के नेत्र अधखुले थे?जिन्होंने यह देखा ही नहीं कि यह व्यक्ति जो तुम्हारे सम्मुख इतना कुछ बता चुका है।असत्य न होगा।इसे तुम्हारी गम्भीरता पर प्रश्नचिन्ह लगता है।समझ नहीं आया कि तुम्हे वाकई क्या कुछ मुझ में झूठ प्रतीत हुआ था।या फिर कोई ऐसी संवेदना कि यह सब कुछ कोई मूर्ख ही कर रहा है।इतनी कर्कश शब्दध्वनि विपरीत लिंगी से कभी भी नहीं सुनी थी।कितना उदासीन बना दिया तुमने मुझे हे मित्र।ऐसी उदासीनता कभी न देखी मैंने अपने निकट और तुमने कभी जिज्ञासा भी न की इसके प्रति।यह तुम्हारा बे-रुखापन मुझे कितना शोषित करता है।यह एक ऐसा खड्ग है कि जो कभी दिखायी नहीं देता पर दिन भर में सहस्त्र बार करता है हृदय पर।हृदय को इतना छिद्रित कर दिया है कि वह तुम्हें अब कोसता है।चलो कोई बात नहीं तुम ऐसे ही ठीक।हे निष्ठुर!थोड़ी तो कोमलता के दर्शन करा देना।उपरि भाग तो तुम्हरा कोमलता से ओतप्रोत है।परं अंतश इतना फौलादी क्यों।क्या अग्निबाण का संधान कर दिया है मेरे ऊपर।हे कोमलाङ्ग तुम्हारे नेत्रों से संधानित हुआ यह अग्निबाण मुझे शनै:-शनै: दाह दे रहा है।भावनाओं का स्फुरण भी ज्वलित हो रहा है।पतंगे जैसा अनुभव कर रहा हूँ आखिर मैं इस दीपशिखा की ओर कैसे चला गया।क्या किसी सम्मोहकता का रूप धरे हुए थे।अब इससे सुरक्षित रहने का उपाय ही परामर्श कर दो।तुमसे अभी तक अपने प्रति भी उस भावना का वर्द्धन न हो सका कि मुझ ग़रीब से बात कर लेते।ऐसी रिक्तता क्यों है।तुम्हें अब सहन करता ही रहना होगा क्या।हाय!क्या तुम इस वियोग के जनक हो।तो क्यों इसे समाप्त नहीं कर देते।मेरे हृदय में कभी अब प्रेमपुष्प नहीं पुष्पित होंगे।हाय!अब मेरे इस जीवन को चन्दन जैसी शीतलता कौन देगा।मैंने तुम्हें चन्दन ही समझा।परं तुम ने मेरे प्रति हुताशन का व्यवहार किया।हे ईश्वर!मेरे इस जलती हुई देह को तुम ही शीतल कर दो।आनन्द की वर्षा कर दो।जिससे विचार की श्रेष्ठता बनी रहे।।करोगे न मुझे सुखी।हृदय में शीतलता का विश्वास भर दो मेरे।हे निष्ठुर,मेरा ईश्वर तुमसे मिलवाएगा तो सही समय पर। उसी समय तुमसे उस शोषक व्यवहार के विषय में प्रश्नोत्तर करूँगा।मेरे जीवन की प्रतिस्पर्धा का अर्द्धांश तुमसे ही होगा।हे निर्दयी मानवी!तुमसे इस कपट भरी निर्दयता की आशा न थी।उस दृष्टि की भी आशा न थी जिससे तुमने मेरे ऊपर ऐसा प्रहार किया और करते चले गए और कर रहे हो। अदृश्य दण्ड से मेरे सहृदय व्यवहार की कटि को तुमने भंजित कर दिया।कहाँ से अब इसकी शिफ़ा मिलेगी।तुम ही बता दो।हे सुन्दर।इतने कटु विनोद की तुमसे आशा न थी।हाय!इस हरे भरे भावनात्मक उपवन को अपने शब्दनखों से तुमने उन्मूलन कर डाला।कहाँ से अब भाषिक कलेवर जन्म लेगा।तुम ही कुछ करो।कैसे गति पकड़ेगा मेरा पवित्र जीवन।तुम्हारी मूर्खता कब शान्त होगी।इतना करने के बाबजूद भी।
©अभिषेक: पाराशरः