??क्या मेरा है मुकद्दर??
तू अपनों के साथ है, ये तेरा है मुकद्दर।
मैं अपनों में पराया, क्या मेरा है मुकद्दर।।
चाँद फीका फीका हुई चाँदनी मद्धम मद्धम।
हर गीत तुझ पे रूप क्या उकेरा है मुकद्दर।।
आसमां के कद से ऊँचा हो जाए कद तेरा।
वास्ते ! जुबाँ पे जादू बिखेरा है मुकद्दर।।
कयामत की रात हो, तब तेरी ही बातें हो।
देख दमकती जिंदगी का सबेरा है मुकद्दर।।
पूरे नहीं होते यहाँ सभी ख्वाब जिंदगी के।
बुने हर हसीन ख्वाब का लुटेरा है मुकद्दर।।
फलक से जमीन पर लौट आए हैं रास्ते तब।
जब ! गर्दिश के सितारों ने, घेरा है मुकद्दर।।
चूमेगी कदम मंजिल या ठोकरें ही ठोकरें।
जोकर के भेष “जय” यहाँ, सपेरा है मुकद्दर।।
संतोष बरमैया “जय”
कुरई, सिवनी, म.प्र.