💐प्रेम की राह पर-36💐
प्रेमतन्तु जो भाव की अचल भूमि से जुड़कर तुमसे अनुस्यूत हुए थे।उनको तुम्हारी स्वस्वरूप स्थित कपटी वैमनस्यता के शब्द रूपी प्रहार ने समूल कम्पित कर दिया है।निश्चित ही उनमें सुष्ठु प्रेम प्रवाह का वेग क्षीण हुआ है और क्षीण हुआ है उनकी प्रगति का सरल और सुखद रहस्य जो हर मानव के लिए प्रकट न होगा।परन्तु इन अबौद्धिक तथ्यों को तुमसे जोड़कर देखने पर सम्प्रति बहुत कष्ट का आन्दोलन उठता है जिसे तुम्हारी अज्ञानी खीज़ ने स्वयं के अपरमार्थिक होना सिद्ध किया।क्योंकि दूसरे जनों के लिए प्रेम की उपस्थिति में ही त्याग की भावना से ओतप्रोत स्वार्थ से परेय निर्विघ्न कर्म की सृष्टि होगी।उस सृष्टि को तुम प्रेम के अभाव में कभी समझ न सकोगे।तुम्हारे विचारों की जड़ता और सादगी से भरे प्रेम पथ से विपथ हो जाना तुम्हारे ज्ञान की किस भाषा को सिद्ध करता है।क्या तुम आकाशचारी थे जो मेरे स्थान तक आगमन कर,निश्चित कर मुझे देखकर शान्त रह गए कि इस पुरूष में प्रेमनिलय है ही नहीं।क्या तुमने मेरे अंतश का पठन कर लिया था?क्या तुम्हें कहीं भोग की कालिमा नज़र आई थी?या वह परतंत्रता जिसमें तुम्हारे प्रेम का ही गुणगान करने की सामर्थ्य थी बस।तुम्हारा अविवेकी होना इस सहज मार्ग पर तुम्हारी झीनी दृष्टि को उत्तरदायी घोषित करेगा।क्या तुम प्रधान विषय से हटकर मनोरंजन का साधन बनाना चाहते थे।पर वह साधन भी तो अधूरा ही था।अपशब्दों का मार्मिक प्रयोग करना और कराना तुम्हारे ज्ञान को किस कोटि में रखता है।
तुम उन मशविरों को भी नहीं जानते हो जिनमें सहजता, रोचकता और पुण्यशाली,पवित्रता का आधार प्रेम से विलग होकर कभी भी मंगलकारी नहीं बनाया जा सकता।कितना हास्यास्पद है कि कोई कथन कहे कि केला आम पर क्यों नहीं लगता।तो स्पष्ट हो सर्वजन यही कहेंगे कि जैविक विमर्श की निश्चितता होने तथा परिस्थिति विशेष में केला आम पर लगेगा और यह आश्चर्यकारी होगा।वैसे ही क्या तुम्हारे ऊपर प्रेमवल्लरी कभी उगेगी।क्या कभी वह फलित होगी।तुम्हारे अन्दर उन परिस्थितियों का रत्ती भर भी विनोद नहीं है।मित्र?और न ही है उस विषयक नवसृष्टि करने की कला का ज्ञान।तुम उच्च कोटि के मूर्ख हो।हो।हां हो।सब कुछ जानकर तुम्हारा प्रेम लालच के साथ उमड़ रहा होगा।इसमें कितनी सच्चाई है।इसे सम्बंधित क्षण तय करेंगे।
©अभिषेक: पाराशरः