💐प्रेम की राह पर-27💐
19-1 जीवन के एकल मार्ग पर चलने वाला मनुष्य बड़ी सहजता से आलम्ब करता है,उसे आत्मसात करता है, उस हर वस्तु और प्राणी का जो उसके परम पावन हृदय को शीतलता दे।शायद ही उसके पास धनादि का जीवन निर्वहन की सीमा से बहि: कैसा ही लोभ हो।हे मेरे प्रिय मित्र!वह उस मार्तण्ड को,शशि को,प्रकृति की हर वस्तु को,अपनी दृष्टि से ही समदर्शन करता है।उसके पदचाप इस धरा पर प्रेरक होते हैं।वह एक चीटीं को भी हिंसक भावना से नहीं देखता है।फिर मेरे प्यारे तुम ने इसका कैसे भान कर लिया कि यह कोई शरीरप्रेमी दुष्ट है और थूक दिया डिजिटली मेरे ऊपर।मेरा कोई भी आशय हे मित्र!तुम्हारे प्रति हिंसक भावना से प्रेरित नहीं था।परं तुम्हारे अनुभव का भी तो दोष था और तुमने अपने मित्र सुझाव के विषय में फेसबुक के अल्गोरिथम के बारे में बताया था।पर जब मैंने प्रयागराज वाली शर्माजिन का ज़िक्र किया तो तुमने उनके पति अमिय कुमार का भी सजेशन दे दिया था वह भी तुरन्त।चलो कोई बात नहीं।यह एक नमूना है तुम्हें फेसबुक के अल्गोरिथम को समझाने का।मैं उस हर तकनीकी से परिचित रहता हूँ रहता हूँ अद्यतन,जो मुझे सामरिक रूप से प्रभावित कर सकती है।ख़ैर तुम इस विषय में भी कच्ची निकली।ज़्यादा लोगों से जुड़ना मुझे सुख नहीं देता है।पर तुमसे जुड़ने में मुझे सुख की प्रतीति थी।हाय!तुमने उजाड़ डाला मेरा प्रेमिक संसार।अपने मनप्रतिकूल शब्दव्यवहार से।कुछ न बचा है अब।इस मृत्युलोक में एक प्रेम के ही आधार पर मनुष्य जीता है चाहे वह ईश्वर विषयक हो या जीव विषयक।हे मित्र!मेरा ईश्वर विषयक प्रेम तो इतना घना है कि सब प्रेम फीके हैं।परं कैसा भी था तुम्हारी नजरों में इसे सच्चा या झूठा समझो।पर तुम्हें कथन कर दूँ।ईश्वर के बाद दूसरा क्रम तुम्हारा था।यह बहुत सत्य है।हाय अघटित को भी घटित कर दिया तुमने मेरे जीवन में।आशा थी अभी तक मेरे सभी जीवनप्रयोग सफल रहे हैं पर यह प्रयोग इतनी शीघ्रता से पतित होगा,क्षीण क्षीण हो जाएगा।मुझे ज्ञात न था।आख़िर कमी कहाँ रह गई।तुम ही बता दो।किसी भी तरीके से तुम्हारे पास मेरा चलभाष भी तो है पर तुम्हें क्या तुम निष्ठुर जो ठहरे।।हे प्रिय!अभी भी तुम प्रिय ही हो।जानते हो क्यों मेरे प्रेम में शत्रुता का भाव ही नहीं है।मेरा मौन भी सब कुछ कह देता है और मैं क्या कर सकता था।क्या टुच्ची प्रेमी की तरह,साफ शब्दों में,ख़ूनी ख़त लिखता,असली प्रेमी सिद्ध करने के लिए नहीं कभी नहीं।मेरा शरीर,मेरी आत्मा,मेरा हृदय भी, परमात्मा के यहाँ गिरवीं हैं।उनसे कहा कि अपने अलावा किसी और को भी इस हृदय कूप में ऊपर से ही झाँक लेने दो।स्वयं तो एकोsहं बहुस्याम् कर लिए।मेरी ज़िंदगी कैसे कटवाओगे।हे मित्र देख लो,उन्होंने सुना और तुम्हें स्थान भी दिया पर तुमने उसको ठिठोली के रूप में लिया और हँसी के रूप में वमन कर दिया।इतनी कंटकी भावना तुम्हारी अभी भी छेदती है।चलो हटो तुम।मूर्ख कहीं के।
©अभिषेक: पाराशरः