???रूप टपकते थे कभी जिनसे किसी….???
रूप टपकते थे कभी जिनसे किसी ज़माने में,
सिकुड़ती खाल और झुर्रियाँ लिए मिलते हैं।
क्या उन्हें नहीं पता था इस जिन्दगी का हश्र ?
कि इस मिट्टी से उठे थे इसी मिट्टी में ही मिलते हैं।।1।।
जिनकी आवाज़ दबाती थी सौ आदमियों के स्वरों कों,
बातें करते ही गिरने का खतरा लिए फिरते हैं,
क्या उन्हें नहीं पता था, अन्तिम पड़ाव का हश्र,
कि इस मिट्टी से उठे थे इस मिट्टी में ही मिलते हैं।।2।।
पसन्द और नापसन्द में ही चढ़ती थी जिनकी नाक भौंह मीनार पर,
भौंहों के निशान नहीं, वक्र नाक लिए हिल हिल कर चलते,
क्या उन्हें नहीं पता था इस मिट्टी की देह का हश्र,
कि इस मिट्टी से उठे थे इस मिट्टी में ही मिलते हैं।।3।।
चौड़ाकर छाती और फुलाकर कन्धे जो चलते थे बड़े जोश में,
कमर टूट चुकी है चलते हैं बहुत सोच सोच कर,
क्या उन्हें नहीं पता था इस ऐसे क्षणिक जोश का हश्र,
कि इस मिट्टी से उठे थे इस मिट्टी में ही मिलते हैं।।4।।
ज़िन्दगी जिओ तराजू के मध्य के सन्तुलन की तरह,
जो न जीते हैं दर बे दर भटकते हुए मिलते हैं,
खाली हाथ जाने के लिए कमाते रहे दोनों हाथों से न देखा हश्र,
कि इस मिट्टी से उठे थे इस मिट्टी में ही मिलते हैं।।5।।
###अभिषेक पाराशर####