??विकल्प रहित कल्पना-तेरी भ्रू वल्लरी??
प्रतीति है,
जो अगाध सागर,
के आवृत्त तरंगों की,
पराजय निश्चित हो,
तिमिर की,
संकुचन हो,
निमिष भर,
सूचक है क्रोध की,
विकुंचित प्रकट करें,
सुगन्ध प्रसन्नता की,
लजाती आँख की पुतली,
विशिष्ट कालिमा की,
गाढ़ी लकीरों की रश्मियाँ,
स्तब्ध करती,
सहजता से,
मानवीय मन को,
निखिल आकाश को,
स्तुति करता,
मोह भी,
दिव्यता विशाल है,
पल्लवित गम्भीरता,
प्रकट हो, जब ही,
दृश्य हास हो,
साम्यता सदृश,
अमावस की,
यथा विभावरी,
योगी के योग जैसी,
ईश्वर के योगक्षेम जैसी,
शालीन,शांत,
प्रक्षिप्त, गूढ़,
रहस्यभरी,
सौन्दर्य की,
विकल्प रहित कल्पना,
ठहर जाता जगत,
जिसे देखकर,
ऐसी हैं,
मनमोहक,
सुवेष्ठित,
कृष्ण रंजित,
निष्कपट,
तेरी संगीत की,
मधुर ध्वनि जैसी,
लहराती,
भ्रू वल्लरी।
(किसी संसारी सुंदरता से प्रेरित होकर नहीं ? एक दम सही कह रहा हूँ और यदि मान भी लो तो कोई फ़र्क नही पड़ता समझे?)
@अभिषेक: पाराशर: