? सौंदर्य सुरभि ?
तुम आभा हो मेरे जीवन की ।
सुखपुंज सलिल की सरिता हो ।।
नौरस, नवरंग समेटे हुए।
तुम प्रेम -पीड़ की हरता हो।।
कस्तूरी सुरभि की मादकता ।
मृगनयनी मदन-बदन हो तुम ।।
रस अधरों पर है प्रेमसुधा।
मधुकर की पुष्प-चमन हो तुम।।
तेरे केश -कलश नव पल्लव हैं।
मधुमास ने सींचा है तुझको।।
यौवन पे फिसलती कामुकता।
सुवास ने खिंचा है मुझको।।
ग्रीवा है जैसे कंचन की।
सर्पों की धारी चुराई हो ।।
स्वर तार सितार की है तुझमे।
तुम दिव्यलोक से आई हो।।
है उरोज लहरते शिखरों पे।
जलकुम्भी सी है सीतलता।।
और अग्र काली अरुणिमा सी।
छाई है क्षितिज पे कामुकता।।
तेरे मध्य- प्रदेश के सिंधु में।
है सोम-सुधा की खान प्रिय।।
नर,नाग,सुर,गंधर्व, किन्नर सब।
देते तुझमें प्राण प्रिय।।
है कमर कटीली कामिनी की।
नागिन भी जैसे लजाई है।।
नितंब-पुष्प दलपुंज बनी।
हे कामा!तेरी तरूणाई है।।
नहीं अंतःपुर का भान मुझे।
कल्पित गाथा मैं गाता हूँ।।
तेरे प्रेमपाश में बँधकर मैं।
कवि “कामदेव”बन जाता हूँ।।
बनी दीप दीवाली की जैसे।
है गर्भगृह का द्वार दृश्य।।
नव पुष्पित लौ की कालिका से।
जगमगाता है यह स्वर्ग सदृश।।
है द्वार घिरा तम पलक -अलक।
भौंहे की अवस्था सी सुसुप्त।।
प्रतिरोध नहीं, गतिरोध नहीं।
सब प्रेमसिंधु पग में विलुप्त।।
कदली कद सम जांघजुट है।
बनी है पाटन मलमल की।।
पंकज पंख सी अर्धचंद्र है।
अनुपम संगम जलथल की।।
रसमाधुरी है माधुर्य तेरा ।
मैं प्रेमपिपासा प्राणप्रिय।।
रस पान करू गुणगान करू।
तुम सम्मोहन सी वाण प्रिय।।
चंद्रमणि सम चरण चित्र है।
कोमलता नवनीत धनी।।
हिना- रंग से रजकण रंजीत।
परम- पाद पुनीत बनी।।
?बिन्देश्वर राय’विवेकी’