??माँ सर्वश्रेष्ठ धन??
बड़ा बन-ठन के निकला था मार्ग पर। ग्रामीण परिवेश में पला बढा था झनुआ। अतः उस पर शहरी सोच का अभाव था।बहुत खुश था कि शहर पहुँच कर खूब पैसे कमाऊंगा। नये कपड़े लूँगा और शहर जाने की ख़ुशी में नये-नये विचार उसके मन में आ रहे थे। बेचारा पाँच साल का था। जब उसके पिता का इन्तकाल हो गया। उसकी ममतामयी माँ थीं उसके लिए कोहिनूर।परन्तु वह भी रुग्ण रहतीं थीं। जैसे तैसे अपनी जननी के इलाज़ के लिए धन इकठ्ठा करता था। थोड़ा कर्ज़ भी हो गया था। धन की तंगी लगातार बढ़ रही थी। जिससे वह परेशान था। कुछ काम धाम की खोज में था।दुःखी लोगों को सब हेय दृष्टि से देखते हैं तथा उसके लिए सब उपदेशक भी बन जाते हैं। यदि समय रहते वह नहीं संभले तो और भी आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ता है। परन्तु परिवर्तन प्रकृति का नियम है। दुःख के बाद सुख भी आता है। परन्तु अरे यह क्या झनुआ के बढ़ते कदम सहसा रुक गए और पुनः कदम घर की तरफ बढ़ चले। रास्ते में ही मिश्रित ईर्ष्या और ख़ुशी के भाव लिए उसके चाचा कलपू मिल गए। ठनुकाकर बोले,”हूँ ! गया नहीं नौकरी करने!तुझसे कुछ नहीं होगा।” निराश्रित झनुआ पढ़ा लिखा कम भले ही था परन्तु संघर्ष ने उसे गुनी बना दिया था। अतः अपने चाचा से प्रतिवाद न करते हुए थोड़ा रूककर आगे बढ़ गया। और वहीं फिर अपने स्वर्ग में पहुँच गया।अपनी वात्सल्यमयी मूर्ति के पास। अपने सर्वश्रेष्ठ धन के पास। माँ उठ नहीं सकती थी।पर अपने कलेजे के टुकड़े को देखकर उनकी बीमारी कहीं भी नज़र नहीं आ रही थी। झनुआ और उसकी माँ के आँसू टपक रहे थे। दोनों ही अधूरे थे एक दूसरे के बिना। जिस विचार ने झनुआ के कदमों को सहसा रोक दिया था। वह यह था कि अपने जननीरूपी धन को छोड़कर जा रहा था। उसके तार्किक विचारों ने उसे रोक लिया और माँ सरिस धन के रक्षणार्थ, सुश्रूषा के लिए वह परिश्रम से गाँव में ही मजदूरी करने लगा।
@@@अभिषेक पाराशर@@@