️अपनी-अपनी️
✍?हाथ है अपने अपनी सोंच है,
जिन्दगानी की कुछ अपनी ही सोंच है।
पता नहीं मुझे कहाँ ले जाएगी मुझे मेरी कशिश,
फिर भी लिखता हूँ, एक उम्मीद है।
कहते हैं सरफरोश होते हैं ज्जबाती होते हैं, सबकी अपनी अपनी गमोंखुश की हरजाई होती है।
लिखना तो कोई गुनाह नहीं,
सोंच के आँखें नम होती है।
मैंने खोजा है अवकाश में!
काश वो हमारा हो
जग जानता है हमें हमारे नियम को,
फिर कोई क्यों कहे ये तुम्हारा नहीं हमारा है।
निश्छल निर्मल है प्रकृति मेरी,
फिर भी लांछन लग जाते है।
खुद के द्वारा तैयार की गई मेरी अपनी लेख को क्युँ कोई अपना कह लेते, क्यों कोई अपना कह लेते हैं।
पढता हुँ कई पन्नों को मैं, फिर कहीं जाकर मात्र एक पन्ना ही लिख पाता हूँ मैं ।
कशुर मेरी समझ की है, मेरे दोस्त !
हो सकता है, इतना ही सीख पाता हूँ मैं।
चंदन कुमार