【【{{{{कोहिनूर कहानी–बचपन}}}}】】
मेरे दिल की कहानी,
मेरी कलम की जुबानी.
हर दर्द से लेकर,
थोड़ी खुशियों की कहानी.
बचपन के दिन अच्छे थे,
हस्ते खेलते बच्चे थे,
हर लम्हा जिये,
छोटी छोटी अनबन थी,
दिल सच्चे थे।
मौज मस्ती हर तरफ थी,
नादानियों की बस्ती हर तरफ थी,
नंगे पांव से होकर,
साईकल पर मस्ती अलग थी।
स्कूल के दिन याद हैं,
क्लास के तमाशबीन याद हैं,
रोज मास्टर से पिटाई,
स्कूल से दौड़ा दौड़ाई,
आते जाते हाथापाई,
छोटी छोटी लड़ाई
लम्हा लम्हा याद है।
माँ बाप का प्यार भी,
दादा दादी का दुलार भी.
वो धूम मचाता हर त्यौहार,
होली के रंग दोस्तों के संग,
दोस्ती की लंबी कतार भी,
बचपन की हर यादगार भी।
वो मेहमानों का आना,
हमारा शरमाकर छुप जाना,
मेहमानों की मिठाई में सेंध लगाकर मिठाई चुराना,
रहता था इंतज़ार भी,मिल जाता कोई उपहार भी।
गर्मियों में मीठा पानी,
बरसात में खेल तूफानी.
हाथ में चपल पहन भागना,
गड्डों में जमा पानी में शैतानी.
दीवारों,छतों से कूदती,
वो बचपन की फौज थी.
ना थी कोई कपड़ों की चाहत,
एक निक्कर में ही मौज थी,
ठंडी ठंडी कुल्फी का मज़ा,
सस्ते कोल्डड्रिंक्स,लेमन का मज़ा.
फ्रूटी की ठंडक की बात,
तरबूज आम की सौगात,
मीठी मीठी छाछ,
वो क्या थी बात,वो क्या थी बात।
ईद की छूट्टी का आना,
पंद्रह अगस्त को देश भक्ति के गाने,
स्कूल में तिरंगा लहराकर,
बार बार बजते आज़ादी के तराने.
रक्षा बंधन की राखी,हर सखी थी साथी,
किसी की चोटी खींचना,किसी को चुड़ैल बताना.
रोज की यही बात थी,यही था दोस्ती का हक़ जताना।
रामलीला देखने का जोश,
मोहल्ले में ही रामलीला बनाकर,
छोटे रोल निभाना,खुद राम बन जाना,
वो छोटे तीर,वो छोटी तलवार मस्ती में चलाना.
गाँधी जयंती के बाद,दशहरे के मेले,
लगे रहते हर मिठाई,खिलौने के ठेले।
दीवाली की धूम न पूछो,
पटाखों की गूंज न पूछो,
पल पल आतिशबाजी संग,
आसमान में रोशन खेल न पूछो।
उड़ती तितलियों का दौर अलग था,
गलियों का शोर अलग था.
अलग थे खेल सारे,
कटी पतंग लूटने का नशा,
जमा थे खिलौनों के पिटारे,
कुछ मिट्टी के गोलक,गुड्डे गुड्डीयों के ख़िलारे।
कंचों से शाम गुजरती,
कहानियों से रात गुजरती,
सुबह के परांठो की महक,
लंच बॉक्स में दिन साथ गुजरती
शरारतों का जाल अलग था,
गलियों का ख्याल अलग था,
खेलने की ललक थी कितनी,
पेड़ों की डाल पर,धूप छाँव का दौर अलग था।
फिर शर्दियों की शुरुवात,
लंबी हो रही थी रात,
मुँह से निकलती भाप,
कच्चे एग्जाम थे पास.
मस्ती में फिर न कमी थी,
नंगे पांव फिर से,न कोई ठंडक की ज़मीं थी.
रिश्तेदारों में शादियां
कईं दिन चलती थी शादियां
नए कपड़ों में सजदज कर,
पहुँचते थे उनके घर।
शादियों के ढोल धड़ाके.
बाराती बन बन के नाचे,
चवन्नी अठन्नी की बरसात,
लूट लूट कर बन जाते थे खास।
कपड़े होगये थे भारी,
चलती रहती मारामारी,
फिर भी खेल कूद में मस्त थी,
हमारी बचपन की लारी,
गर्म चाय की तलब तब भी रहती,
गर्म जलेबी की चाहत थी रहती,
दिसंबर की सर्दी ठिठुर ठिठुर बहती.
दिसम्बर के तो चाव ही बड़े थे,
क्रिस्मस, नवबर्ष के इंतज़ार बड़े थे,
सांता के ड्रेस की खोज,जिंगलबेल्ल का शोज.
वो सर्दी की छुटियाँ,नाजाने कब गुजर गया वो दौर.
ढूंढे से नही मिलता अब,
नाजाने कब गुजर गया वो दौर,
नाजाने कब गुजर गया वो दौर.
वो बचपन का शोर,
नाजाने कब गुजर गया वो दौर,.
मासूम सा रोना,
वो घर का एक कोना,
वो आँखों को मलते मलते,
नन्हें कदमों पर चलते चलते,
नाजाने कब गुजर गया वो दौर
नाजाने कब गुजर गया वो दौर।
मेरे दिल की कहानी,
मेरी कलम की जुबानी,
बचपन तूफानी,एक कीमती निशानी,
एक कोहिनूर कहानी,
रहता था कदमों में जब ज़ोर,
मासूम सूरतों का न था कोई मोल.
नाजाने कब गुजर गया,
नाजाने कब गुजर गया वो दौर।