【{【{आब-ए-आईना}】}】
शब गुजरी है यादों से तकरारो में,
अक्कासी,शेरगोई हमारे बस की बात नही
रंगे-खूने-दिल फैला है इस गुर्बत की दीवारों में.
जंजीर तोड़ के अपने ही गले में बांध लेना चाहता हूँ,
तदबीर कोई है नही ज़माने की इन पत्थरीली मसनूई मीनारों में.
जुस्तजू अपनी अपनी लिए फिरते है,
कातिब हर कोई बन बैठा है आब-ए-आईना हो कर इन ज़ख्मी किनारों में।