✍️हम हादसों का शिकार थे
धूप में किसी की छाँव थे कभी बेमौसम बहार थे
वक़्त के हालातों में उलझी हुई हाथ की लकीर थे
किसी की जरूरत थे तो किसी के लिए बेकार थे
हम हादसों के जाल में फँसे बेवजह के शिकार थे
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©✍️ ‘अशांत’ शेखर
16/09/2022