✍️साबिक़-दस्तूर✍️
✍️साबिक़-दस्तूर✍️
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मैं खुद उलझा हूँ साबिक़-दस्तूर में
ये शोर मुझे गुमराह कर नहीं सकता
कुछ ज्यादा गहरी है उन पेड़ो की जड़ें
थोडी उखाड़े बगैर मैं मर नहीं सकता
तेरा खौफ खाना और ये दहशतगर्दी..!
तू जानता है जुल्मी,मैं डर नहीं सकता
हमने भी शजरकारी सिखी है ज़मी से
नई बिजे बगैर बोयें मैं बहर नहीं सकता
सजी है रिंदो की महफ़िल गिरता कौन?
ये शर्त लगाई है तो मैं हार नहीं सकता..!
‘अशांत’उठे है अरमां बरसो के सोये हुए
मैं देर तक मुश्किलों में ठहर नहीं सकता
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✍️”अशांत”शेखर✍️
06/07/2022