✍️बूढ़ा शज़र लगता है✍️
✍️बूढ़ा शज़र लगता है✍️
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कोई मुस्कुराकर दो बातें कर ले तो अब डर लगता है
कोई जरासी हमदर्दी जता ले वो मन का चोर लगता है
हमने जिनको पास बिठाया था वो सर चढ़ बैठ गये..
गर मेरा अपना करीब आये तो वो भी फितूर लगता है
मुँह के तरकश में तीखी बातों के तीर थे सीने पे लगे..
हर मीठी जुबाँ से निकला हुवा लफ्ज़ नश्तर लगता है
आँखों की नींद को तो वो अधूरे ख़्वाब ही चुरा ले गये..
खामोश रात में सिसकता मेरा खाली बिस्तर लगता है
सुबह पैरो से गुजर जाती शाम खाली हाथ लौट आती
क्या दिन क्या माह क्या साल हर वार इतवार लगता है
हम जिंदगी की कश्ती में बिना पतवार ही चल पड़े थे..
अब सजा चश्म को गिरते अश्क जैसे समंदर लगता है
अब मैकदे में बैठे तो बैठे कैसे यार बेगाने दुश्मन सारे..
अपने ही जेब से ख़रीदा हुवा जाम अब जहर लगता है
एक आँधी में बिखर के टुटा पड़ा है वो अपने आँगन में
सारे बाज़ परिंदे उड़ गये गिरा जो बूढ़ा शज़र लगता है
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©✍️”अशांत”शेखर✍️
31/07/2022