✍️कुछ दबी अनकही सी बात
कुछ थी बातें मैं धीरे धीरे मोम सा पिघल गया
उस अँधेरे में रोशनी के लिए शमा सा जल गया
रोज मिलते रहे शहर में शहद की जुबाँ के लोग
ये मिश्री घुले ना बदन में निम के पत्ते निगल गया
मेरी उम्र को भी कुछ तज़ुर्बे आ गए है धूपछांव के
ठोकरों ने गिराया है पर अब मैं खुद ही संभल गया
उसके शहर के रास्तो की ख़ाक छान कर देखी है
मैंने रुख क्या मोड़ा राहों का दस्तुर ही बदल गया
कुछ थी गुंजाईशें गर बातों से बात यदि बन जाती..
मगर वो नादाँ कुछ अनकही सी बात ही भूल गया
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©✍️’अशांत’ शेखर
29/11/2022