⚪️ रास्तो को जरासा तू सुलझा
भीतर है मेरे एक घना अँधेरा कुँवा
शायद मेरी ही कमी से वो गहरा हुँवा
रोजाना कुछ रोशनी खिंच लाता हूँ
चार दिवारी में थोड़ी सी बाँट लेता हूँ
कभी तो ये उजाले लड़खड़ा जाते है
फिर दीवारो के ये रंग भी रूठ जाते है
उलझे वक़्त से हजारो मिन्नतें की है
बता मेरी वो मंझिल कहाँ गुम हुई है
वो कहता मैं तो साथ हूँ, है तू उलझा
बस अपने रास्तो को जरासा तू सुलझा
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✍️ ‘अशांत’ शेखर
06/02/2023