★मैरिज हॉल★
★मैरिज हॉल★
पीढ़ियों से,
शादी-ब्याह का उत्तरदायित्व,
बूढ़े आंगन के ऊपर ही था।
घर के हर सुख-दुःख का,
एकलौता साक्षी था
ज्यादा तो नही पर,
पिता के पिता के पिता के,
यानि , कम से कम तीन-चार पीढ़ी ने,
उसके गोद में जीभर जिया था।
और एक आत्मिक लगाव भी था,
बुआ का उस जगह से लगाव,
अनायास नही था, जहाँ से,
उनकी नई जिंदगी शुरु हुई थी।
लेकिन वक्त से प्रतियोगिता और,
विकास की होड़ ने,
उस आँगन को निगल लिया है,
अपार्टमेंट की दीवरों में,
सिमट गया है इंसान।
अब बचपन ईंटो,
और महँगी फर्शों पर ही,
बड़ा हो जाता है।
और उस शादी के आंगन की कमी,
‘मैरिज हॉल’ पूरा कर जाता है।
बेहद खूबसूरत, किफायती,
बजट के हिसाब से,
और इंस्टेंट भी,
मिजाज के हिसाब से,
दुल्हन सजा के,
दुल्हन से भी अधिक सजे- संवरे,
उस मैरिज हॉल में लाई जाती है।
और खाना-पीना, नाच-गाना,
मिलना-मिलाना,
और फिर सुबह तक विदाई।
सबने औपचारिकता में रोया भी,
मैरिज हॉल ने सबसे अधिक रोया,
जैसे उसका कोई जान निकाल लिया हो,
पर शाम तक फिर सज कर तैयार था,
नई दुल्हन के कन्यादान को।
कल फिर रोयेगा फफक के,
हर शाम सजता,
और सुबह सिसकता है।
किसी गुमनाम गली के नायिका की तरह।
सब न जाने क्या पाने के लिए,
भागे जा रहे है।
कल वो, अपने उनके साथ, वहाँ से गुजरी,
वो लम्हे याद तो आये,
पर न वो आत्मीयता थी,
न लगाव,
और न आँगन के मिट्टी की महक।
एक आँसू ढुलक गया,
फिर आगे बढ़ गई,
वक्त भी कहाँ है, किसीको।।
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©सौरभ सतर्ष
#अतीत_अभी_अभी