☀️ओज़☀️
☀️ओज़☀️
ढल गया हूँ पर्वत के पीछे
था सूरज मानुष का ।
रंग-बिरंगी थी आंगन प्यारी
ताने खड़ा आज दु:ख धनुष सा ।।
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हरियाली तेज से घिर गई
बवंडर भरी चञ्चल मन ।
घास थी ,सड़ते दल-दल से
जैसे मोह से तड़पता तन ।।
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स्वयं न रचा इतिहास कभी
प्रफुल्लित था जब मन ।
दोपहर सी हिलोरती मुझे
दुख की झंझा तेज पवन ।।
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अलहन है मुझ पर
उत्साह से अंकुरित हुआ तन ।
कटार खड़ा नवयुवक अज्ञ
क्षण-क्षण कटता दु:ख से चरण ।।
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लुढ़कते मोती गालों पर
दु:ख से जैसे तपते नयन ।
आल्हाद है पीड़ा नस-नस में
क्षीर लहर सा तड़पता बदन ।।
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हर श्वास में है विश्वास
उन्नति से बंधता बंधन ।
कर्तव्य बोध की सीढ़ी पर
अंतिम पग अड़ा मधुसूदन ।।
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उगना है तिमिरता से डटकर
ओढ़ना नहीं आलस्य कफ़न ।
पकता है उम्र आम जैसे
तब बढ़ता है ज्ञान का यौवन ।।
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🔥 सुरेश अजगल्ले “इन्द्र”🔥