● रसायन शास्त्र के अध्यापक से शास्त्रार्थ ●
दिल है कोई खिलौना नही ।
ये तो है बगिया का कोमल सा पुष्प ।।
कोई सोना नही ।
आघात कर दो मेरे तन पर ।।
शूल मिट जाए ।।
पर लगती है बात जब ।
दिल मे तो वो छाप नही ।।
कि भांप बनकर उङ जाए ।।
दिल है कोई खिलौना नही ।
जो टूटकर जुङ जाए ।।
दिल वो तिनका है जो हवा के एक झोंको से उङ जाए ।
लगती है जब आत्मसम्मान को ठेस ।
दिल मसोसकर रह जाए ।।
लगता नही डर हमको तोप, बम बारूदो से ।
लगता है डर जितना उलजुलूल गाली-गलौज के बातो से ।।
गाली नही वो गोली है ।
जो लग जाती है सीने मे ।।
भूल न पाऊं उस शूल को ।
अपने सारे जीवन मे ।।
जो है धंसी एक नफरत, बदला के कोने मे ।
रौब जमाते डांट लगाते ।।
अपने को जो लाट समझते ।
जो है लगे सुख भोगने मे ।।
ऐसे को हम समझाएंगे ।
अपना वक्त प्रशस्त होने पर ।।
इनको समझाना भैंस के आगे बीन बजाना ।
सीधी अंगुली से घी नही निकलता ।।
मुश्किल है लातो के भूत को बातो से समझाने मे ।
एक बार विधालय की रसायन प्रयोगशाला मे किया प्रवेश ।।
पूछा गुरूवर से एक प्रश्न विशेष ।
उपाध्याय निकाले नींबू से खून ।।
कौन अभिकर्मक होने से ।।
आया नही जब उनके ध्यान मे झल्लाए ।
चिल्लाए जोर से ।।
इसका नाम है क्या समूह मे पूछे ।
अपने परिचारक से ।।
नाम मेरा आर. जे. आनन्द ।
दृश्य नही था कागद कोने मे ।।
मुझको वो झल्लाकर बोले ।
निकल जा मूढ शोधशाला से ।।
मैने कहा ये टीचर नही फटीचर है ।
भरे हुए है विष प्याला से ।।
ढाई आखर प्रेम का पढै सो पण्डित होय ।
कह गए दास कबीर ।।
इतना भी न समझ पाए गुरुवर बात मूल ।
भौतिक विधा पाय कर मन मे करत अंहकार ।
सो ज्ञान क्षण बिनसि जाय जब पहुंचे यमद्वार ।।
कोई तत्व होता नही पंचतत्व से सब बना ।
पढाते रह जाओगे 118 तत्व मेरी कर अवमानना ।।
विलीन हो जाओगे एक दिन तुम इसी तत्वो की गोंद मे ।
अभी समझ मे नही आएगा लाला ।
क्योकि तुम चूर हो ।।
नशा, लोभ अंहकार के सुरूर मे ।
शिक्षक बने कुछ काबिल ।।
तभी होगा कुछ हासिल ।
पता होता गर शिक्षक को ।।
बदलते नही बच्चे तन पर देकर चोट ।
तन तो है वही करता ।।
जो है उनके मनमे खोट ।
लगा था पहली बार जीवन मे ।।
मेरे आत्मसम्मान को ठेस ।
लगी जब गांधी – चाणक्य को ।।
अंग्रेज- घनानन्द से ठेस ।
उनको किया समूल नष्ट ।।
उनको दिया उखाङ फेंक ।
बदले की भावना है हलाहल विष से भी प्रबल ।।
परशुराम का बदला भूल गए ।
क्षत्रियो का कर दिए नाश वंश समूल ।।
बदले मेरे इंसा होता वैसे पागल जैसे कुत्ते हो जाते ।
मरने से पहले कितनो श्मशान दिखा जाते ।।
युद्ध जो भी हुआ सब इसी का है परिणाम ।
कोई जीता कोई हारा दिया अपनी छोङ छाप ।।
मधुर बोलने वालो की बिक जाती है नीम का तेल भी ।
कङवा बोलने वाले की बिकती तक न शहद भी ।।
क्रोध बोध का है सबसे बङा अवरोध ।
आयेगा जीवन मे जब प्रतिरोध ।।
विस्मरण हो उठेगा ओम ।
सिहर उठेगा रोम – रोम ।।
हिलने लगेंगे दिग्दिगंत पाताल – व्योम ।
मेरा सिर्फ एक सार ।
जीवन में सबके हो प्यार ।।
गर करोगे हाहाकार ।
दुःख उठेगा सुन कवि को ।
गुरूवर की वो प्रतिकार ।।
सहन तो हम कर लेंगे ।
पर दिल बङा कोमल सुचार ।।
आत्मसात कर इस प्रणय को।
हो जाए सब विनम्र, निष्काम ।।
यही है उनके विचार ।
जो है भाग्य विधाता आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम चन्द्र अभिराम ।।
☆☆ RJ Anand Prajapati ☆☆
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