{{◆ भूख ◆}}
ये पेट की आग भी, कितनी अज़ीब होती है
भूख तो है मगर, जेब अक्सर गरीब होती है
कांधे पर बस्ते की जगह, ज़िम्मेदारी आ गई
बचपन बेच कर भी, भूख ही नसीब होती है
भूख की तपिश में, कचरे से भी खाना ढूंढ लेते है
जिसे अमीर फेंक देता है, गरीब के लिए वो लज़ीज़ होती है
इस भूख ने ही इंसान को, क्या से क्या बना दिया
भूख कभी मिटती नही, लालच और करीब होती है
खुद को भी बाजार में, खड़े हो कर भाव लगाया इस भूख ने
दर्द देखा नही किसी ने, बस अखबारों में अदीब होती है
जो भूखा सो गया, उससे पूछो दो निवाले की कीमत
अंध आस्था में नाली में बहाया खाना, ये अन्न भी कितनी
बदनसीब होती है
अनाज उपजा के भी, किसान गरीब और लाचार है
उपजाने वाला भी अक्सर भूख में सोया, भूख उसकी भी
हबीब होती है
उम्र सारी दो वक्त की रोटी कमाने में गुज़र दी
पेट तो भर गया, पर भूख इंसान की रक़ीब होती है