◆{{◆ नीलाम हो कर रह गई ◆}}◆
बंद दरवाज़े के पीछे , सिसकियां बंद हो के रह गई,,
एक बेटी की इज़्ज़त बाप के हाँथो, नीलाम हो कर रह गई,,
जिसने उसे एक रुप दिया ,एक आकर दिया,,
उसी आकार की बोटी बोटी हराम हो कर रह गई,,
माँ ने आँचल से मुँह, बंद कर चीखें दबा दी हलक में,,
दिया घर का हवाला और, उसकी इज़्ज़त कुर्बान हो कर रह गई,,
दिन तो कट जाता था , खुद को आँचल में छुपाते हुए,,
रात उसका ज़िस्म जैसे राशन की दुकान हो कर रह गई,,
उसने अपने रूप को सजाया था, साजो श्रृंगार से बहुत,,
रूह उसकी उजड़ी , बिया वान हो कर रह गई,,
अपने जन्म देने वाले के हक़ में, भी उसे कुछ कर गुजरना था,,
अब वो मासूम बच्ची कहाँ,, नोट बनाने का सामान हो कर रह गई,,
समाज के कुछ शरीफ़ चेहरे, रात अंधेरे में उनके पॉव को चूमते,,
वही लड़की दिन के उजाले में, किसी की बेटी- बहन हो कर रह गई,
भूखे पेट और घर में बुझता चूल्हा, में हिम्मत जब हर गई,,
नौकरी की तलाश में दर दर भटकी, अब बदनाम हो कर रह गई,,
कोई देवता , कोई प्रेमी, कोई साधु – संतों की दुकान में ,
कई चेहरे के रूप में इतना नोचा के, अब वो सिर्फ शमशान हो कर रह गई