||||◆लोग बहुत सारे◆||||
अपने शहर में रहते हैं लोग बहुत सारे,
कुछ वक्त के सताए हुए कुछ अपनों के मारे।
तिल तिल कर बिखरा है जिनका जीवन ये सारा,
सहारों में रहकर भी सदा रहे बे-सहारा।
दिखे न जिनको कभी भी सवेरे,
रहे जिनको घेरे सदा ही अँधेरे।
मेहनत के बल पे भी जिनके गए दुख न टारे
अपने शहर में रहते हैं ऐसे लोग बहुत सारे।
बिलखते हुए भूखे चलते हुए
पाँव ज़मी पे रहे जलते हुए,
माँगते हुए सदा अन्न को भीख में,
जीते हैं जीवन पेट आधा भरते हुए।
लावारिस सी उठती है जिनकी मैयत दिन दहाड़े
अपने शहर मे रहते हैं ऐसे लोग बहुत सारे।