■ संस्मरण / यात्रा वृत्तांत
■ महके बाल और भन्नाई खोपड़ी
◆ बहती नहर के किनारे एक यात्रा (ग्राम-सोईं कलां से किलोरच)
◆ ऊबड़-खाबड़ पगडंडी और ट्रैक्टर-ट्रॉली की सवारी
◆ भुलाए नहीं भूलते जीवन के कुछ वाक़ये
【प्रणय प्रभात】
बात शायद 1985 की है। तब मैं बीकॉम द्वितीय वर्ष का छात्र था। इसी कक्षा में बालसखा रमेश गुप्ता (नागदा वाले) भी मेरे सहपाठी थे। हमें पहली बार मौक़ा मिला एक गौना कार्यक्रम में भागीदारी का। ग्राम-सोईं कलां निवासी मित्र व सहपाठी सुरेश यादव (सुपुत्र श्री मदनलाल जी यादव) की ओर से। जिन्हें अपनी जीवन-संगिनी को पहली बार विदा करा कर लाना था। सुरेश भाई के विशेष आग्रह पर हम दोनों नियत दिन सोईं पहुंच गए। चूंकि ग्रामीण अंचल के मांगलिक आयोजन में शामिल होने का यह पहला अवसर था। लिहाजा मैं भारी उत्साहित था। गर्मी का मौसम था। महीना मार्च का था। यानि तपन भरे दिन और ठंडी रातें। बहुत कुछ ले जाने की ज़रूरत थी नहीं। फिर भी दो जोड़ी कपड़े, तौलिया और बेहतरीन साबुन हमारे साथ था। साथ ही “चार्ली” का इंटीमेट स्प्रे भी। मंशा कुछ अलग नज़र आने की। सोईं से यात्रा हमारे ही क्षेत्र के ग्राम-किलोरच की थी। मार्ग चंबल नहर के किनारे की कच्ची सड़क। वाहन कुछेक ट्रेक्टर-ट्रॉली और यात्री क़रीबन एक सैकड़ा। जिनमें बच्चे, जवान, बुज़ुर्ग सब शामिल थे। हमें पूरे मान-सम्मान से एक नए ट्रैक्टर में चालक के आजू-बाजू वाली सीट पर बैठाया गया। दिल तब धड़का जब चालक की सीट हमारे ही सहपाठी जगदीश मीणा ने सँभाली। जो वर-देवता यानि सुरेश भाई के स्थानीय बालसखा हैं। दिल धड़कने की वजह जगदीश भाई ही थे। जिनका दाँया हाथ दुर्भाग्यवश किसी दुर्घटना की भेंट चढ़ चुका था। कच्ची व असमतल कैनाल रोड पर ट्रैक्टर की सवारी की कल्पना पहले ही आधे उत्साह की हवा निकाल चुकी थी। बाक़ी हवा चालक महाराज को देख कर बन्द हो गई थी। बहरहाल, यात्रा का श्रीगणेश हुआ। जगदीश भाई का ट्रैक्टर सबसे आगे था। जो गड़गड़ाते और धड़धड़ाते हुए ऊबड़-खाबड़ सड़क पर दौड़ रहा था। कैनाल रोड पर पहुँचने तक हमारा डर आधा हो चुका था। जगदीश भाई की शानदार ड्रायविंग ने दिल को राहत देने का काम किया। एक ही हाथ से स्टेयरिंग व गियर्स को कुशलता के साथ कंट्रोल करते हुए जगदीश भाई हमारे अचरज को बढ़ा रहे थे। बहती नहर के समानांतर जर्जर पगडंडी पर दौड़ते हुए ट्रैक्टर ने किलोरच तक की यात्रा सकुशल पूरी की। घरातियों ने सभी का सत्कार परंपरानुसार किया। ठहरने का इंतज़ाम एक बड़े से चबूतरे पर बने भवन में था। कुछ ऊँचाई पर स्थित भवन के पास हेंडपम्प लगा हुआ था। पसीने की चिपचिप से कुछ पीछा फागुनी बयार ने छुड़ा दिया था। गर्मी और थकान से उबारने के लिए हेंडपम्प मानो हमें आमंत्रित कर रहा था। हमने बिना देरी किए बेहद साफ़ और ठंडे पानी से जम कर स्नान किया। नए वस्त्र धारण किए और कपड़ों पर जी भर कर स्प्रे किया। नई उम्र, नया जोश, नया शौक़ और नया माहौल। कपड़ों पर स्प्रे कर के मन नहीं भरा तो उसे खोपड़ी पर भी छिड़क लिया। भरी हुई स्प्रे की शीशी अब एक चौथाई बची थी। पूरा परिवेश उस सुगंध से महक रहा था, जो असहनीय सी हो चुकी थी। शहरी जैसे होने के कारण आकर्षण का केंद्र हम पहले से बने हुए थे। रही-सही कसर स्प्रे ने पूरी कर दी। बाक़ी लोगों की अनुभूति का पता नही पर हम बेहाल थे। बेहद तीखी गंध और केमिकल के प्रभाव से हमारी खोपड़ी भन्नाने लगी। यह वही दौर था जब मंगलगीतों के बीच भोजन के साथ रसनों की तैयारी ज़ोर-शोर से जारी थी। हमारी समझ में आ चुका था कि स्प्रे खोपड़ी के काम की चीज़ नहीं है। सिर दर्द से फटा जा रहा था। महकने की चाहत आफ़त बन चुकी थी। उससे निजात पाने के लिए एक बार फिर नहाने के सिवाय कोई चारा नहीं था। हेंडपम्प की शरण में जा कर हम दोनों ने तब तक नहाना जारी रखा, जब तक स्प्रे की खुशबू साबुन की सुगंध से हार नहीं गई। नतीजा यह निकला कि हेंडपम्प के बहते पानी के साथ स्प्रे की खुशबू गाँव के भ्रमण पर निकल पड़ी। हम भी कुछ राहत महसूस कर रहे थे। कुछ देर बाद भोजन ने भी ऊर्जा प्रदान की। गौने का कार्यक्रम निपटने के बाद रात को खुले आसमान के नीचे बिछी खाट पर बेहतरीन नींद आई। अगली सुबह ताज़गी और राहत से भरपूर थे। सोईं के लिए वापसी उसी मार्ग से हुई जिससे आमद हुई थी। इंटीमेट स्प्रे की मीठी सी सुगंध अब भली सी लग रही थी। वो हमारे बालों से आ रही थी या हवा से, राम जाने। ग्राम्यांचल की यात्रा के खट्टे-मीठे अनुभव का मज़ा लेते हम सोईं पहुँचे। दोपहर का भोजन कर शाम को अपने घर वापस लौट आए। वाक़या 37 साल पुराना है मगर “चार्ली” स्प्रे की तरह आज तक अपनी महक यादों के आँगन में बिखेर रहा है। सुरेश और जगदीश दोनों से मिले एक अरसा हो गया है। राम जी की कृपा से भविष्य में कभी समय सुयोग बना तो दोनों से भेंट होगी। ईश्वर उन्हें मय परिवार स्वस्थ व आनंदित रखे। यह कामना तब भी थी, अब भी है।
#जय_रामजी_की।
#जय_ग्राम्यांचल।
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