Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
4 Feb 2023 · 8 min read

■ संस्मरण / जो अब है बस यादों में 😍

■ संस्मरण (यादों का झरोखा)
😍 धड़कनों में बसा वो एक शहर【प्रणय प्रभात】
राजस्थान की वो कोटा नगरी आज एक हब बन चुकी कोटा महानगरी से बिल्कुल अलग थी। जो कभी दिल की धड़कनों में बसा करती थी। आज सिर्फ़ और सिर्फ़ यादों में क़ैद है। न बहुत सीमित, न आज जितनी मीलों तक विस्तारित और भीड़ भरी। क्षेत्रफल और आबादी के मान से भी एकदम संतुलित। शोर-शराबे और वाहनों की अंधी दौड़ से कोसों दूर। बेहद दर्शनीय, रमणीय और आकर्षक भी। बात अब से चार दशक पहले की है। जब कोटा शहर ना तो एज्यूकेशन हब था, ना ही चिकित्सा के क्षेत्र में इतना आधुनिक। तब हर तिराहे, चौराहे पर ना तो इतने ख़ूबसूरत सर्किल थे, ना ही पार्क। सात अजूबे (सेवन वंडर्स) और हवाई पुल (हैंगिंग ब्रिज) जैसे स्थल तब कल्पनाओं में भी नहीं थे। चंबल गार्डन उस दौर का सर्वाधिक सुंदर और पसंदीदा पिकनिक स्पॉट हुआ करता था। उसके आगे अमर-निवास, श्री गोदावरी धाम, अधर-शिला और भीतरिया कुंड सहित नसिया जी (दादाबाड़ी) भी सुरम्य पर्यटन स्थल थे। जहां सैलानियों और स्थानीय परिवारों की उत्साह से भरपूर मौजूदगी रौनक बिखेरा करती थी। चंबल गार्डन की सुंदर लाइटिंग के बीच झाड़ीनुमा पौधों की मनमोहक आकृतियां मन को लुभाती थीं। मद्धिम स्वर में गूँजतीं मानस की चौपाइयां माहौल में रस घोलती रहती थीं। चंबल की नीलाभ जल-धाराओं पर फट-फट की आवाज़ के साथ फर्राटा भरती मोटर-वोट की सवारी तब बेहद रोमांचित करती थी। घर से बना कर ले जाया गया भोजन हरी-भरी घास के कालीन पर बैठ कर अत्यंत स्वादिष्ट लगता था। कोटा बैराज, गढ़ पैलेस आदि भी यदा-कदा तफ़रीह के अच्छे विकल्प होते थे। तब आवागमन के तीन साधन ही प्रचलन में थे। लम्बी थूथनी और तीन चक्कों वाले टेम्पू, तांगे और रिक्शे। आवागमन के निजी साधनों में सर्वाधिक संख्या छोटी-बड़ी सायकिलों की होती थी। उसके बाद स्कूटर, मोपेड, बाइक आदि का नम्बर आता था। चार पहिया वाहन ख़ास और अभिजात्य परिवारों के पास ही होते थे। तारकोल की काली, चिकनी व चौड़ी सड़कों पर साइकिल दौड़ाना तब बेहद मज़ा देता था। बचपन से युवावस्था तक कोटा मेरी सहज पहुंच में रहा और अभिरुचि में भी। मेरे छोटे मामा राजस्थान राज्य विद्युत मंडल (आरएसईबी) में सेवारत थे। वे किराए के मकान में रहते थे और एक निर्धारित अंतराल पर घर बदलते रहते थे। कारण क्या थे, यह न कभी समझने की कोशिश की और न ही जान पाया। बहुत छोटा था तब उनका ठिकाना, जो पाटनपोल की किसी गली में था। जिसकी याद बहुत धुंधली मगर अब भी है। बाद में उन्होंने किशोरपुरा गेट के पास किन्हीं पारीक जी का घर ले लिया। जो श्री नीलकंठ महादेव मंदिर के पास था। यहां रहते हुए गढ़ पैलेस और नज़दीक स्थित उद्यान तक आना-जाना बेहद आसान होता था। सन 1980 के दशक में दादाबाड़ी कॉलोनी कोटा की सबसे अच्छी कॉलोनी के तौर पर वजूद में आई। यहां स्थित आवास 3/के/4 में चार-पांच साल बेहद यादगार रहे। चंबल गार्डन वाला क्षेत्र यहां से मामूली दूरी पर था। गर्मी की छुट्टियों में दिन भर बर्फ़ के गोले, नर्म-नर्म ककड़ी, फिरनी, फालसे, जामुन, शहतूत, रसीले तरबूज़, हरबूजे और कुल्फ़ी आदि के ठेले घण्टी बजाते, आवाज़ लगाते आया करते थे। सबसे कुछ न कुछ खरीदना दिन भर का काम था। हर ठेले वाले के पास अधिकांश परिवारों का उधार खाता होता था। घर-घर में हड़ और चूरन-चटनी की पेकिंग और गत्ते के डिब्बों की मेकिंग का काम तब घरेलू रोज़गार होता था। हर रविवार को चंबल गार्डन जाना तब बेहद लाजमी था। गर्मी के दिनों में तब रात बेहद सुहानो हुआ करती थी। ध्वनि और वायु प्रदूषण से मीलों दूर। पानी के छिड़काव के बाद शीतल चूने की छत पर बिस्तर बिछाना और आधी रात के बाद तक धमाल करना बहुत भाता था। मामी जी और उनके चार बच्चों के साथ हम चार भाई-बहन और मिल जाते थे अपनी मम्मी के साथ। आपस में खूब हंसी-ठठ्ठा होता रहता था। न जाने कहाँ-कहाँ के किस्से निकल कर आते थे। कभी-कभी कुछ पलों की हल्की सी झड़प भी हम बच्चों में हो जाती थी। जो दर्ज़न भर बच्चों के बीच स्वाभाविक सी ही थी। थके-हारे मामाजी अपने अनूठे अंदाज़ में भुनभुनाते और अंततः चिर-परिचित हंसी के साथ हमारी मस्ती में शरीक़ हो जाते। जिन्हें उनके हमनाम बाल-सखा राजू मामा बहुत छेड़ते और खिजाते थे। हर शाम साइकिल पर सवार होकर आना और देर रात लौटना उनकी दिनचर्या में शामिल था। खाने-पीने के शौकीन और बेहद मस्तमौला।वे ईसाई परिवार से ताल्लुक़ रखते थे और ख़ासे मोटे-ताज़े व लंबे-चौड़े थे। मसखरापन उनमे भी ऊपर वाले ने कूट-कूट कर भरा था। मैकेनिकल लाइन के थे और तमाम बिगड़ी चीज़ें ख़ुद सुधार देते थे। फेक्ट्री से कुछ न कुछ बना कर लाना उनका शौक़ था। कॉलोनी के इस हिस्से में तब बहुत गहमा-गहमी नहीं होती थी। वातावरण प्रायः शांत प्रतीत होता था। आधी रात तक एक अदद ट्रांजिस्टर हम सबके मनोरंजन का साझा माध्यम होता था। बिनाका गीतमाला, चित्रपट से, फौजी भाइयों के लिए, विविध भारती का पचरंगी प्रोग्राम और बेला के फूल जैसे कार्यक्रमों के अंतर्गत उस दौर के कर्णप्रिय गीत प्रसारित होते रहते थे। पुराने सदाबहार गीत भी आधी रात तक ट्रांजिस्टर से गूंजते थे। एकाध बार टॉकीज़ में फ़िल्म भी देख आते थे। यहां के बाद अगला ठिकाना बना दादाबाड़ी विस्तार योजना का आवास 3/जी/39, जहां की यादें आज भी रोमांचित करती हैं। उन हसीन यादों की नुमाइंदगी करता है लता जी और भूपिंदर साहब द्वारा गाया गया “दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात-दिन” जैसा कर्णप्रिय गीत। जो आज भी उन दिनों की यादों को जवान बनाने का माद्दा रखता है।
इस क्षेत्र में लगभग सभी आवास भरे हुए थे। लिहाजा चहल-पहल की कोई कमी नहीं थी। हल्दी, तेल, दाल, चाय-पत्ती, शक्कर, आटा मांगने और लौटाने के लिए आने वाले पड़ौसी बेहद क़रीबी से थे। इसके पीछे अभाव जैसी स्थिति नहीं थी। बस घरों में अति संचय की आदत नहीं थी शायद किसी को। न आने-जाने वाले मेहमानों की संख्या का कोई अंदाज़ा। इस आवास के पास ही एक आवास मामीजी के बड़े भाई यानि मुन्ना मामा का था। लिहाजा यहां मौज-मस्ती की कम्पनी का आकार और बड़ा था। यहां से साइकिल लेकर मेला मैदान के रास्ते नयापुरा, घंटा-घर, टिपटा, पाटनपोल, कैथूनीपोल, सब्ज़ी मंडी जाना रोज़ का काम था। तीखी धूप में दूर तक सुनसान सड़क पर साइकिल की रफ़्तार भी गज़ब की होती थी। कचौड़ी लाना हर दूसरे दिन का काम था। कच्चे पापड़ और मोटे सेव (सेवड़े) प्रायः सब्ज़ी का विकल्प होते थे। दादाबाड़ी के छोटे चौराहे पर कुंदन पान वाले की दुकान हर शाम हमारी पहुंच में होती थी। दो-तीन गुमटीनुमा दुकानों पर कॉमिक्स व पत्रिकाएं किराए पर मिलती थीं। इसी तरह कुछेक दुकान साइकिलों की थीं। सप्ताह में एक दिन थोक में सब्ज़ी लाने के लिए बड़ी सब्ज़ी मंडी जाने का अपना ही मज़ा था। यहां सब्ज़ी ताज़ा, अच्छी और सस्ती मिलती थी। जो आम दिनों में दादाबाड़ी कॉलोनी की गिनी-चुनी दुकानों पर डेढ़ से दो गुना मंहगी मिला करती थीं। दिन भर कुछ न कुछ खाना-पीना और मौज-मस्ती करना हर साल गर्मी की छुट्टियों का तक़ाज़ा था। इसके अलावा मनमर्जी से कोटा आना-जाना साल में चार-छह बार हो जाता था। दो-दो कमरों, एक आंगन और बाहर काफ़ी खुली जगह वाले एक छोटे से क्वार्टर में हम दर्ज़न भर लोग चैन से रह लेते थे। यह सोच कर भी अब ताज्जुब होता है। जब सबको अलग कमरों की दरकार होती है। पता चलता है कि गुंजाइशें ईंट-पत्थर के घरों में नहीं दिलों में हुआ करती थीं। खेल-कूद के साधनों के बिना दो-दो महीने कितने मज़े से गुज़र जाते थे। इस बात की कल्पना भी आज की पीढ़ी शायद ही कर पाए। लगता था कि असली आनंद नक़ली संसाधनों का मोहताज़ नहीं हुआ करता। यह अंदर से उपजने वाली सहज हिलोर होता है। जिसका वास्ता केवल आपसी सरोकारों और आत्मीयता से होता है। कोटा प्रवास का आखिरी पड़ाव गणेश तलाब रहा। जहां मामाजी ने ख़ुद का एक छोटा सा घर ले लिया। उड़िया बस्ती के पास स्थित घर के सामने तब सिर्फ़ मैदान हुआ करता था। यहां से काफ़ी दूरी पर बस मोदी कॉलेज नज़र आता था। बहुत से सूने इलाके के बाद जवाहर नगर जैसी कुछ नई कॉलोनियाँ तब आकार पा रही थीं। हमारी दौड़-धूप सामान्यतः कोटा के पुराने क्षेत्रों में रहती थी। कभी-कभी सीएडी और एरोड्रम चौराहे तक की सैर भी साइकिल से हो जाती थी। सीमित साधनों के बीच बेहद यादगार रहे वो दिन। फिर इन्हें किसी की नज़र लग गई। सन 1992 में धुलेंडी के दिन मामाजी अपने परिचितों से रंग खेल कर घर लौट रहे थे। मोदी कॉलेज के ठीक सामने किसी नशेड़ी रईसज़ादे की तेज़ रफ़्तार कार ने उन्हें कुचल दिया। जिनकी दुःखद मृत्यु की ख़बर परिवार को अगले दिन मुश्किल से मिली। मामाजी के जाने के बाद परिवार लगभग असहाय सी स्थिति में आ गया। तीन बेटियों की शादी और तमाम कारणों से छोटा सा आशियाना भी एक दिन औने-पौने में बिक गया। बाद में मामाजी के बेटे को मिली अनुकम्पा नियुक्ति और मामीजी को मिली फेमिली पेंशन से हालात सामान्य हो गए। परन्तु वो दौर आज तक नहीं लौट पाया जो अब तक यादों में महफ़ूज़ है। कुछ सालों बाद राजू मामा भी दुनिया छोड़ गए। जिनकी गोद में बचपन के कई बरस बीते। बाद में मामीजी ने भी बेटे की बदली के कारण कोटा छोड़ दिया। कुल मिला कर बरसों तक अपना सा लगने वाला कोटा अब एक पराया सा नगर लगने लगा है। जहां पहुंचकर वो सुखद अहसास अब होता ही नहीं। निस्संदेह बीते तीन दशक में कोटा ने तीव्रगामी व गगनचुंबी विकास की तमाम इबारतें लिखीं। बेशक़ यहां की विकासयात्रा ने राजस्थान सहित अन्य राज्यों के बाक़ी शहरों को चौंकाया। बावजूद इसके मैंने उस कोटा को फिर कभी नहीं पाया जो मेरे दिल और उसकी धड़कनों में बसा करता था। आज तक भी धड़कता है मगर केवल यादों में। आज श्योपुर वालों के लिए कोटा आसानी से पहुंच में है। मेगा हाईवे और मार्ग की पार्वती, कालीसिंध जैसी नदियों पर पहले से ऊँची पुलियाओं ने आवागमन के ज़ोखिम को सामान्य काल मे लगभग खत्म सा कर दिया है। एक के बाद एक अच्छी बसों का संचालन भी होने लगा है। बावजूद इसके राजस्थान राज्य परिवहन निगम की बसों का वो सफ़र भुलाए नहीं भूलता, जो बरसात में जटिल हो जाता था। पार्वती और कालीसिंध नदी के कारण रास्ता मामूली बारिश में बाधित हो जाता था। बावजूद इसके कोटा की यात्रा साल में कई बार बदस्तूर जारी रहती थी। जो अब अन्य शहरों की यात्राओं के लिए बतौर जंक्शन एक पड़ाव भर है। जिसका वास्ता भी केवल रेलवे स्टेशन और नयापुरा क्षेत्र से बचा है। जहां अपने लिए अब कोई लगाव या आकर्षण जैसी अनुभूति नहीं। अपना कोटा वर्तमान कोटा के लंबे-चौड़े आँचल में पूरी तरह गुम हो चुका है। बहरहाल, कोटा प्रवास से जुड़े तमाम यादगार व मज़ेदार किस्से फिर कभी फुर्सत में…….।। #miss_you_old_kota 😍

1 Like · 269 Views

You may also like these posts

घना शोर था
घना शोर था
Seema gupta,Alwar
जिंदगी में आते ही है उतार चढाव
जिंदगी में आते ही है उतार चढाव
shabina. Naaz
*दोस्त*
*दोस्त*
DR ARUN KUMAR SHASTRI
गांधीजी की नीतियों के विरोधी थे ‘ सुभाष ’
गांधीजी की नीतियों के विरोधी थे ‘ सुभाष ’
कवि रमेशराज
याराना
याराना
Sakhi
"पारंपरिक होली और भारतीय संस्कृति"
राकेश चौरसिया
कभी निशाना  चूकता  नहीं।
कभी निशाना चूकता नहीं।
रामनाथ साहू 'ननकी' (छ.ग.)
इत्तिहाद
इत्तिहाद
Shyam Sundar Subramanian
जरूरी नहीं की हर जख़्म खंजर ही दे
जरूरी नहीं की हर जख़्म खंजर ही दे
Gouri tiwari
सब्र की शक्ति जिसके पास होती है वह महान इंसान होता है, सब्र
सब्र की शक्ति जिसके पास होती है वह महान इंसान होता है, सब्र
ललकार भारद्वाज
तुम में और मुझ में कौन है बेहतर
तुम में और मुझ में कौन है बेहतर
Bindesh kumar jha
वो इश्क़ कहलाता है !
वो इश्क़ कहलाता है !
Akash Yadav
गीत खुशी के गाता हूँ....!
गीत खुशी के गाता हूँ....!
singh kunwar sarvendra vikram
ह्रदय जब स्वच्छता से ओतप्रोत होगा।
ह्रदय जब स्वच्छता से ओतप्रोत होगा।
Sahil Ahmad
शीर्षक -हे !पथ के स्वामी
शीर्षक -हे !पथ के स्वामी
Sushma Singh
भोले बाबा है नमन
भोले बाबा है नमन
ओम प्रकाश श्रीवास्तव
ग़ुरूर
ग़ुरूर
सिद्धार्थ गोरखपुरी
पेपर लीक हो रहे ऐसे
पेपर लीक हो रहे ऐसे
Dhirendra Singh
ख्वाब जब टूटने ही हैं तो हम उन्हें बुनते क्यों हैं
ख्वाब जब टूटने ही हैं तो हम उन्हें बुनते क्यों हैं
PRADYUMNA AROTHIYA
निःशब्दता हीं, जीवन का सार होता है......
निःशब्दता हीं, जीवन का सार होता है......
Manisha Manjari
मेरे अधरों पर जो कहानी है,
मेरे अधरों पर जो कहानी है,
लक्ष्मी वर्मा प्रतीक्षा
"एक नज़र"
Dr. Kishan tandon kranti
अँधेरे में नहीं दिखता
अँधेरे में नहीं दिखता
Anil Mishra Prahari
दिवाली है दीपों का पर्व ,
दिवाली है दीपों का पर्व ,
ओनिका सेतिया 'अनु '
इस ज़िंदगी ने तो सदा हमको सताया है
इस ज़िंदगी ने तो सदा हमको सताया है
Dr Archana Gupta
** पर्व दिवाली **
** पर्व दिवाली **
surenderpal vaidya
पर स्त्री को मातृशक्ति के रूप में देखना हनुमत दृष्टि है, हर
पर स्त्री को मातृशक्ति के रूप में देखना हनुमत दृष्टि है, हर
Sanjay ' शून्य'
दिखने वाली चीजें
दिखने वाली चीजें
Ragini Kumari
।।
।।
*प्रणय*
ज़िन्दगी तेरी बनना जायें कहीं,
ज़िन्दगी तेरी बनना जायें कहीं,
Dr fauzia Naseem shad
Loading...