■ प्रसंगवश :-
#प्रसंगवश :-
■ प्रत्यूषा से आकांक्षा तक
【प्रणय प्रभात】
महज 24 और 25 वर्ष की कमसिन उम्र….सही समय पर मिले अवसर के बलबूते अर्जित लोकप्रियता….प्रतिभा और सौंदर्य के संगम के तौर पर अपार संभावनाओं से भरपूर जीवन और फिर….एक ग़लत फ़ैसला !
नतीजा- “जीवन का दु:खान्त।”
प्रसंग में है एक अरसे तक हम सबकी चहेती रही “आनन्दी” (प्रत्यूषा बनर्जी) की अनचाही और त्रासदीपूर्ण विदाई के नक़्शे-क़दम पर एक और दुःखद प्रसंग। भोजपुरी नायिका आकांक्षा दुबे की आत्महत्या का अबूझ सा मामला। चमकदार दुनिया का एक काला सच, जो दुःखद है। ऐसे माहौल में प्रसंगवश प्रस्तुत है एक सबक़। उस हताश और आवेशित तरुणाई के लिए, जो अनमोल जीवन को बेमोल लुटा देने पर आमादा है। वो भी चंद पलों के आकर्षण से उपजी कुछ दिनों की आशनाई के बदले।
ऐसा रिश्ता आख़िर किस काम का, जो “जान देने” के दावे से बने और “जान लेने” के बाद ख़त्म हो जाए? समाज से लेकर छोटे-बड़े पर्दे तक कथित इश्क़ के नाम पर एक-दूसरे को छलने का जो चलन प्रचलन में आया है। वो न केवल शर्मनाक बल्कि चिंताजनक भी है। उस हर समाज और समुदाय के लिए, जो ख़ुद को भद्र, आधुनिक और प्रगतिशील कहता है। ऐसे ही वर्ग, समाज और समुदायों के लिए है सुप्रसिद्ध व कालजयी व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी का एक छोटा सा संदेश, जो कुछ यूं है:-
“मुझसे कोई विफल प्रेमी पूछे कि अब मैं क्या करूँ, तो मैं कहूँगा कि कहीं और प्रेम कर लो। मरते क्यों हो…? यह न हो तो ज़िंदगी अन्य कामों में लगाई जा सकती है। पत्नी द्वारा प्रताड़ित (प्रेरित) तुलसीदास आख़िर महाकवि हो ही गए। तुम्हारे ही यहाँ आधुनिक युग में एक उदाहरण एनीबेसेन्ट का है। तुम जानते होगे कि बर्नाड शॉ की प्रतिभा की लौ से वे बुरी तरह अभिभूत हो गई थीं। नौ वर्षों तक वे शॉ से प्रेम करती रहीं, पर जब विवाह का प्रश्न आया तो शॉ ने इतनी कठिन शर्तें रखीं कि एनीबेसेन्ट विवाह नहीं कर सकीं। वे ‘थियोसोफिक सोसाइटी’ में काम करने लगीं। भारत आईं और भारत में उन्होंने जो सेवाएं दीं, वे उन्हें अमर करने को पर्याप्त हैं। प्रेम की विफलता ने उन्हें समाजोन्मुख कर दिया। इसलिए यह सीखना होगा कि प्रेम की विफलता मरने का कारण नहीं है।इतना बड़ा समाज सेवाएँ मांगता है। उसका भी हक़ है। प्रेम का पतनशील दर्शन इस युग में नहीं चलेगा। प्रेमियों का संयोग अगर समाज नहीं होने देना चाहता, तो साहस के साथ वे विद्रोह करें। गले से पत्थर बाँध कर उस जीवन (परलोक) में मिलने की आस लेकर तालाब में डूबना बड़ा भारी पाप है। वे यहाँ (परलोक में) भी नहीं मिलते। यह मैं देखता रहता हूँ।।”
एक समर्थ व सशक्त व्यंग्यकार का उक्त संदेश यक़ीनन एक सहज सबक़ है, उन असहज युवाओं के लिए, जो मौत को गले लगाने जैसी मूर्खता को बहादुरी समझते हैं। महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम, साहिर लुधियानवी जैसे तमाम उदाहरण साहित्य संसार में भरे पड़े हैं। जिन्होंने एकाकी जीवन को वरदान के रूप में स्वीकार कर धन्य कर लिया। मिसाल महाकवि सूरदास और संगीतकार रविन्द्र जैन से लेकर जगतगुरु स्वामी रामभद्राचार्य जैसी अनेकानेक विभूतियां भी हैं, जिन्होंने जन्मांधता जैसी अपूर्णता के विपरीत जीवन की पूर्णता व सम्पूर्णता के स्वर्णिम सोपान रचे। वहीं, एक पीढ़ी आज की है, जो सफलता की सीढ़ी पर चढ़-कर भी आरोहण के बजाय अवरोहण की मुद्रा को स्वीकार रही है।
आवश्यकता किसी एक आरज़ी और आभासी सम्बन्ध के लिए जीवन से अनुबंध तोड़ने की नहीं। जीवन के निबंध को एक नया और खूबसूरत मोड़ देने की है। न सिर्फ़ अपने बल्कि उन अपनों के लिए, जिनके लिए आप ख़ुद से अधिक अनमोल हैं। याद रहे कि जीवन आपका होकर भी आपका नहीं है। यह एक ऋण है उनका, जो आपके जन्म से लेकर पोषण तक के लिए जूझे हैं। आपके जीवन पर आपसे बड़ा हक़ उनका है, जिनके साथ किसी न किसी रिश्ते की डोर से ईश्वर ने आपको बांधा है। मानव-देह व जीवन को ईश्वरीय अनुकम्पा व उपहार मानें और उसका अनादर करने की क्षुद्र सोच से बचें।
यदि आप किसी एक बेमेल रिश्ते की बलिवेदी पर चढ़ते हैं, तो ख़ुद को पशुबत मानने के अधिकारी भी नहीं। कदापि न भूलें कि एक निरीह पशु या मूक पक्षी भी किसी कसाई को सहर्ष अपनी जान नहीं देता। पूरी तरह पकड़ और जकड़ में होने के बाद भी वो जीवन-रक्षा के लिए फड़फड़ाता या कसमसाता है। निर्बल होकर भी अंतिम क्षण तक शक्ति जुटाने की साहसिक चेष्टा करता है। जीवन के लिए मौत से इस संघर्ष को न समझें तो बेशक़ मरें। पूरे शौक़ और आराम से। क्योंकि जीवन आपके लिए कितना भी लायक़ क्यों न हो, आप ख़ुद नालायक़ हैं। जीवन और जगत दोनों के लिए। बस… इससे अधिक कुछ नहीं।।
■प्रणय प्रभात■
श्योपुर (मध्यप्रदेश)